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चाणक्यसूत्राणि
लक्ष्य रहना चाहिये। यही वह लक्ष्य है जो दोनोंकी पारस्परिक तथा सामाजिक शान्तिको सुदृढ बनाये रखनेवाली भाधारशिला है । पाठान्तर- भर्तृवशानुवर्तिनी भार्या ।
(शिष्य कैसा हो ?)
गुरुवशानुवर्ती शिष्यः ॥ ३३७ ।। शिष्यको गुरुको इच्छाका अनुवती होना चाहिय ।
विवरण- यहां वश शब्द इच्छाके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मानव. समाजमें मनुष्यताका संरक्षण तथा सुखसमृद्धिका उत्पादन करनेवाली माध्यात्मिक तथा सर्वप्रकारको भौतिक विद्या गुरुपरम्परासे ही सुरक्षित रहती हैं । गुरुका कर्तव्य है कि वह समाजसेवाके द्वारा अपनी विद्याका सदुपयोग करके ऋपिऋणसे उरण होजाय । उसका कर्तव्य है कि वह योग्य पात्रको शिष्य के रूप में अपनाकर उसकी यथोचित ज्ञानसेवा करके समा. जके प्रति अपनी कृतज्ञताका प्रदर्शन करे। शिष्य विद्यार्जन तब ही करसकता है जब वह गरुमें मास्मसमर्पण करके रहे। अर्थात् अपने आपको गुरुके वातावरणका पाज्ञाकारी अंग बनाकर रक्खे । गुरुकी विद्याका ग्रहण तब ही संभव है जब शिष्य गुरुकी इच्छाका अनुवर्तन करके उसके प्रेमको अपनी ओर आकृष्ट करले ।
शिष्यका यह सामाजिक कर्तव्य है कि वह अपने विद्याधनको अपने स्वार्थसाधनके उपयोगमें भानेवाला न माने किन्तु उसे समाजको सेवाके साधन के रूप में स्वीकार करे । सच्छिष्यकी यही योग्यता मानी जाती है कि वह भादर्शसमाजसेवक गुरुकी सदिच्छाका अनुवर्तन करनेवाला हो। गुरुका समाजसेवी होना अत्यावश्यक है। गुरुका समाजद्रोही होना कदापि अभीष्ट नहीं है तथा यह कोई शुभलक्षण नहीं है। समाजसेवा ही विद्वान् गुरुओंके गुरुपदको शोभित करनेकी योग्यता है । शिष्योंको इस योग्यताको अपने हृदय में सुप्रतिष्ठित करनेवाले गुरुषों के हाथों में पूर्ण भास्मसमर्पण करके