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चाणक्यसूत्राणि
नहीं देता वह कृष्णपक्ष में घटती चली जानेवाली इन्दुकलाभोंके समान अपनी प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति तथा उत्साहशक्ति तीनों शक्तियों को नष्ट कर डालता है। क्रोधान्धका लोकोत्तर सामर्थ्य भी अंधेके जंघाबल के समान व्यर्थ होजाता है।
समवृत्तिरुपैति मार्दवं समये यश्च तनोति तिग्मताम् । अधितिष्टति लोकमोजसा स विवस्वानिव मेदिनीपतिः ।।
( भारवि ) जो राजा अपनी बुद्धिवनिको साम्यावस्थामें रखकर जब जैसा अवसर हो तब कभी मृदु तथा कभी तीक्ष्ण बनाना जानता है यह ऋतुभेदसे मृदु तथा तीक्ष्ण होते रहनेवाले सूर्य के समान अपने भोज, तेज, धैर्य, मृदुता, तीक्ष्णता आदि लोकरक्षार्थ अपेक्षित आवश्यक गुणोंसे समस्त लोकपर माधिपत्य स्थापित करता है।
( विवाद किन से न किया जाय ? ) । मतिमत्सु मूर्ख-मित्र-गुरु-वल्लभेषु विवादो न कर्तव्यः ॥३५२।।
बुद्धिमानों, मूखों, मित्रों, गुरुओं तथा प्रभुओंके मुंह चढ लोगोंसे कलह न करना चाहिये।
विवरण-- बुद्धिमान से कलह करना मूर्खता है । मूर्ख से अपनी ओर से कलह छेडना मूर्खता है । मित्रसे कलह करना अपने ही हितसे द्वेष करना है । गुरुमोंसे कलह करना ज्ञानीलोकसे वंचित रहना है । अपने पालक या रक्षक प्रभुसे कलह करना अपना सर्वनाश करना है। बुद्धिमान् के जीवन में मूर्खको छोडकर अन्य किसीसे भी कलह करनेका अवसर नहीं आसकता। मूखोंकी मूर्खताके कारण उनके साथ संग्राम करने के अवसर बुद्धिमानोंके पास भी जाते हैं। परन्तु उनसे जहांतक संभव हो बचना ही बुद्धिमत्ता है । फिर भी इस संग्रामसे सदा बचे रहना संभव नहीं होता । सत्पुरुषों के जीवन में मूल्की ओरसे शतशः विनोंका उपस्थित होना स्वाभाविक है :