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चाणक्यसूत्राणि
अंकुर विद्यमान है । आजका मनुष्यसमाज निःस्वार्थ सेवाके उसी अंकुरको सखाडकर मातृभूमिको शोषण करके उदरपूर्ति करनेवाला स्वार्थलोलुप समाजद्रोही बन गया है । जिस मातभक्तिके भीतर समाजको सुदृढ करके राष्ट्र. संघटन करनेका मूलमंत्र या मूलशक्ति विद्यमान है, समाजमें उस मातृभक्तिको संजीवित करना हो समाजकी सर्वमान्य राष्ट्रीय पाठविधि है । मनुज्यके स्वाभाविक शिक्षक राष्ट्रसेवकों का यही स्वधर्म है कि वे इस राष्ट्रीय विधिसे मनुष्यमात्रको परिचित करादें। समाजके स्वाभाविक शिक्षक सच्चे राष्ट्रसेवक लोग इस मातृसेवा धर्मको स्वयं पालकर हो राज्यव्यवस्थामें प्रविष्ट हों तथा समाजको सन्मार्गपर चलायें ।
(विद्वत्ताविरोधी आचरण ) वैदुष्यमलंकारेणाच्छाद्यते ॥३६४॥ मनुष्यकी विद्वत्ता देहसज्जासे आच्छादित होजाती है। विवरण- वेषभूषाकी अलंकृतिसे सम्मान पाना चाहनेवाले नामधारी विद्वान अपनी विद्याको अपमानित करके उसे अपनी वेषभूषामें छिपा लेते हैं। देह सजानेवाले लोग विद्वत्ताके मर्मसे अपरिचित रहते हैं । देहको शोभित करने या बनठनकर रहनेकी भावना अज्ञानी मनोवृत्ति है। मनुष्य जाने कि दैहिक शृंगारके साथ ज्ञानका वध्यधातक संबंध है । मनुष्य शृंगार प्रिय भी हो तथा वह पण्डित भी हो यह परस्परविरुद्ध बात है। जिसमें पाण्डित्य होता है उसकी चित्तवृत्ति ज्ञानज्योतिसे सुशोभित रहती है । ज्ञान ही विद्वानके हृदयको समुज्ज्वल रखनेवाला स्वाभाविक भाभरण है। यदि कोई विद्वान् नामधारी पुरुष या स्त्री इस सत्य सिद्धान्तकी उपेक्षा करके अपने देहको सजाने के लिये कृत्रिम भाभरणोंका उपयोग करता है तो समझ जाना चाहिये उसकी विद्वत्ता ज्ञानसे रहित शुकविद्या (तोतारटन ) है। उसकी विद्वत्ता अज्ञानान्धकारसे ढका हुमा बोझा है। अपने दैहिक रूपको अलंकारोंसे सुशोभित करनेकी भावना मानसिक कुरूपताका ही द्योतक है । "नाकामी मण्डनप्रियः " मकामी व्यक्ति कभी भी मण्डनप्रिय नहीं