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নানুষ
पूछना चाहते हैं कि " कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ” नारेवाले कहां मुंह छिपाये बैठे हैं ?
( मर्यादोहंघन अकर्तव्य) कदापि मर्यादा नातिकामेत् ॥ ३११ ।। कभी भी शिष्टाचारकी सीमाका उल्लंघन न करो। विवरण- मनुष्य किसी भी उत्तेजना तथा कैसे भी संकटकाल में शिष्टोंकी मर्यादाओं नीतिनियमों तथा सदाचारसीमाओं का उल्लंघन न करे। शिष्ट व्यक्ति में शिष्टाचार न त्यागनेका सुदृढ स्वभाव होता है । उसके मनमें प्रतिक्षण यह सावधानवाणी गूंजती रहती है कि कहीं मेरा शिष्टाचार मेरी किसी असावधानतासे भंग न हो जाय । यदि कोई क्षणिक उत्तेजनासे माकर शिष्टाचारका सीमातिक्रमण करता है तो वह उसकी मशिष्ट मनोवृत्तिकी अभिव्यक्ति माना जाता है। सच्चा शिष्टाचारी अपने आपको कभी भी अशिष्ट की स्थिति में अध:पतित नहीं करसकता। उसका मन शिष्टा. चार की सीमामें रहने के लिये प्रतिक्षण सजग रहता है।
यथा हि मलिनैर्वस्त्रैर्यत्रतत्रोपविश्यते ।
एवं चलितवृत्तस्तु वृत्तशेषं न रक्षति ।। जैसे मनुष्य मलिनवस्त्र होजानेपर ( उनके मैला होनेका डर न रहनेपर) उन्हें पहनकर जहाँ कहीं बैठ जाता है, इसीप्रकार चलितवृत्त मानव अपने शेष वृत्तको बचाने में असमर्थ होकर दुराचार के हाथोंमें आत्मसमर्पण करके अपना स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त करलेता है । मानव जाने कि मर्यादाका उल्लंघन या नीतिनियमोंका भंग करते समय मनुष्यको जो क्षुद्र भौतिक सुख या लाभ होता दीखता है वह उसके सर्वनाशका श्रीगणेश होता है । पाठान्तर-- न कदापि मर्यादामतिक्रमेत् ।।
(गुणी पुरुष राष्ट्र के अमूल्य धन )
नास्त्यर्घः पुरुषरत्नस्य ॥ ३१२ ॥ अपनी जीवनव्यापी तपस्यासे राष्ट्रके ललामभूत उत्तम बने हुए पुरुषरत्न की कोई उपमा या भौतिक मूल्य नहीं है।