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स्त्रैण स्त्रियोंसे भी अपमानित
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इन्द्रिय तथा देह किसी भी शुभकर्म करने के योग्य नहीं रहते । ऐसे मान. बको शारीरिक मानसिक किसी भी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं होता। समाजसेवा, यज्ञ, सत्संग आदि आत्मोद्धारक कर्म धर्मकृत्य कहाते हैं । कामुक, लम्पट, स्यासक्त, स्टैण, रमणीरत आदि पर्यायवाची शब्द हैं।
(स्त्रैण स्त्रियोंसे भी अपमानित ) स्त्रियोऽपि स्त्रैणमवमन्यन्ते ।। ३१८॥ सहधर्मिणी भी स्त्रैण पुरुषोंको अवज्ञाकी दृष्टिसे देखती हैं। विवरण- विषयलोलुप कामासक्त लोग अपनी विषयलोलुपता, कामा. मकि, निरयगामी नीच स्वभाव तथा अमनुष्योचित भोगप्रवृत्तियों से अपनी धर्मपरायण स्त्रियोंकी दृष्टि में भी अवज्ञाके पात्र बनजाते हैं।
विचारशील पत्नियां अपने सहधर्मी पुरुषोंको धीर, गंभीर, संयमी, अलोलुप, स्वावलम्बी और हृष्ट पुष्ट देखना चाहती है। लोलुप, कामी लोग समाजमें तो निन्दित होते ही हैं, अपने घरमें भी अपनी प्रतिष्ठा खोलेते तथा घरोंको नीति तथा दुराचारका अड़ा बनालेते हैं। लोलुप, कामी लोग मानसिक रूपमें दुर्बल होने के कारण अकर्मण्य, अविश्वासी, अनुरसाहो, अश्रद्धेय, अधीर, अगंभीर, असंयमी, अयशस्वी तथा निर्बल होजाते हैं। स्वैग लोग सञ्चारित्र्य तथा सच्छक्तिके अभाव के कारण सुधी समाज में अव. हलित रहते हैं। पुरुषका यही गुण माना जाता है कि वह पुरुषार्थसे सम्पन्न हो तथा अपने गुणों तथा परिश्रमोसे अपने समाजको अलंकृत करे। जो लोग इन गुणोंसे भ्रष्ट होते हैं, जो समाजके कलंकस्वरूप होते हैं, उनकी सहधर्मिणियां भी उन्हें घृणाकी दृष्टि से देखती हैं । सहधर्मिणी अपने भर्ताको समाजमें तो यशस्वी पुरुषसिंह के रूप में तथा घरमें घरको गौरवान्वित करने. चाले रूपमें देखने की इच्छा लेकर ही उसे पतिरूपमें वरण करती हैं। वे अपने चरको कलंकसागरमें डूबोदेने के लिये भर्ताका वरण नहीं करती।
न पुष्पार्थी सिंचति शष्कतरुम् ॥ ३१॥ जैसे पुष्पार्थी शुष्क तरुको न सींचकर जीवितको सींचता है