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सत्य तथा दानकी कसौटी
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स्वधर्म है । सत्य ही मनुष्यका स्वरूप है । सत्यसे प्रेम ही दया है । सत्यका प्रेमी हृदय स्वभावसे सस्यका रक्षक होता है ।
यत्नादपि परक्लेशं हर्तु या हदि जायते। इच्छा भूमि सुरश्रेष्ठ सा दया परिकीर्तिता ॥ कृपा दयानुकम्पा च करुणानुग्रहस्तथा । हितेच्छा दुःखहानेच्छा सा दया कथ्यते बुधैः ।। अपहृत्यार्तिमार्तानां सुखं यदुपजायते।
तस्य स्वर्गोऽपवर्गो वा कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! मानव-हृदयमें यत्न करके भी पर-क्लेश-हरणकी जो इच्छा पैदा होती है वही दया कहलाती है । कृपा, दया, मनुकम्पा, करुणा, अनुग्रह, हितेच्छा तथा दुःखहानेच्छाको बुद्धिमान् लोग दया नामसे कहते हैं । दुखियोंका दुःख हटाकर मनुष्यको जो सर्वभूतात्मताका अनुपम सुख प्राप्त होता है स्वर्ग या अपवर्गके सुख उस सुखके सोलहवें भागकी भी समता नहीं कर सकते।
धर्मादपेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम् ।
न तत्सेवेत मेधावी न हि तद्धितमुच्यते ॥ मेधावी मनुष्य महाफलदायी भी धर्मरहित कार्य न करे। उसमें मनुव्यको लंबी-चौडी आय होती दीखनेपर भी उसमें उसका निश्चित भकल्याण होता है ( मनुष्यताकी रक्षा ही सत्य और दानके ठीक होने की कसौटी )
धर्ममूले सत्यदाने ॥ २३७ ।। धर्म ही सत्य तथा दान दोनोंका मूल (जनक ) है। विवरण- समाजमें मनुष्यताको सुरक्षित रखना ही सर्वोत्कृष्ट मानवधर्म है । सस्य इसी धर्मके पालनसे सुरक्षित रहता तथा दान इसी धर्मके पालनसे सार्थक होता है । किसी भी कर्मको कर्तव्यरूपमें स्वीकार करने में