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चाणक्यसूत्राणि
वह शत्रु है । व्याधि स्वदेहज होनेपर भी अपना शत्रु होती है तथा औषध सुदूर अरण्य या पर्वतपर उत्पन्न होनेपर भी हितकारी मानी जाती है।
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कक्षादप्यौषधं गृह्यते ॥ २५० ॥
जैसे व्याधिनाशक औषध अरण्य जैसे असम्बद्ध स्थान से लेनी पडती है इसीप्रकार उपकारी व्यक्ति संसारी दृष्टिसे हीन होनेपर भी उपेक्षित तथा अवहेलित नहीं होना चाहिये ।
पाठान्तर-- अक्षादप्यौषधं गृह्यते
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जैसे गुंजा से भी भौषध तोलने का काम किया जाता है इसीप्रकार असम्बद्ध उपकारी व्यक्तिको भी हितैषी मानलेना पडता है ।
( विश्वासके अयोग्य )
नास्ति चौरेषु विश्वासः ।। २५१ ।। चोरोंका विश्वास कभी न करना चाहिये ।
विवरण - अन्यायपूर्वक संग्रह करनेके इच्छुक सबके सब चोर हैं । अनुचित लाभ लेनेवाले व्यापारी, उत्कोच लेनेवाले तथा स्वेच्छाचारी, शासक, राजकर्मचारी, अन्यायी अदालत के चाटुकार व्यवहार-जीवी (वकील) कर्तव्य पालन न करनेवाले कर्ता, सच्चा धर्मप्रचार न करनेवाले धर्मप्रचारक, सच्ची शिक्षा न देनेवाले अध्यापक, राजनीतिले पृथक् रहकर धर्मका प्रचार करनेवाले तथा कु-शासनका विरोध करने से बचते रहनेवाले पत्रकार, व्यवस्था- -परिषदोंके सदस्य, नेता, धर्मप्रचारक तथा धार्मिक संस्थायें आदि सब चोर श्रेणी में आते हैं । ये सब राष्ट्रके चोर हैं । जिसका जो अधिकार नहीं उसका उसे चाइना ही चोरीका मूल हैं । वस्तुओंपर मनुप्योंका अधिकार उचित श्रमरूपो उचित विनिमय से ही प्रतिष्ठित होता है । समाज-सेवक होने के नाते देशके प्रत्येक नागरिकको अत्याज्य समाज : - सेवा