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चाणक्यसूत्राणि
पारस्परिक शत्रुताका अन्त होजाता है । अहंकार न रहनेपर यह समस्त संसार मनुष्य को अपना सहायक मित्र दीखने लगता है । अहंकारामिभूत मनुष्य विवेकहीन होकर अपने अवैध आचरणोंसे अपना पराया अनिष्ट करके संसारमें दुःखोंकी वृद्धि कर देते हैं । संसार में अशान्ति पैदा होना अहंका स्का ही दुष्परिणाम है । कर्ण, दुर्योधन, रावण आदिके जीवन अहंकारकृत अशांतिउत्पादनके उदाहरण हैं ।
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मदमानसमुद्धतं नृपं न वियुक्त नियमेन मूढता ।
अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपज्यते जनः ॥ ( भारवि ) अविवेक कभी भी दर्प तथा अहंकार से समुद्धत राजासे अलग नहीं रहता । अतिमूढ ( अविवेकी ) मानव नीतिमार्ग से बाहर दूर फेंक दिया जाता अर्थात् नीतिहीन होजाता है । लोकमत नीतिद्दीन से विरक्त तथा रुष्ट होजाता और उससे असहयोग करलेता है ।
( सभामें शत्रुसे वाग्व्यवहारकी नीति )
संसदि शत्रु न परिक्रोशेत् ॥ २८९ ॥
सभा में शत्रु के क्रोधको उत्तेजित करनेवाली कटुवाणी या अपभाषण करके विचारसभाको छेडछाडकी सभा मत बनाओ ।
विवरण - सभा में शत्रुपक्ष या उसके वक्ताकी व्यक्तिगत निन्दा करके मुख्य विचारणीय विषयको खटाईमें मत डालो । सौजन्य तथा शिष्टाचार की मर्यादा रहते हुए अपने पक्षका मण्डन तथा शत्रुपक्षका खण्डन करो सभा में बोलने की एक मार्यादा होती है । उसका उल्लंघन न करते हुए ही विवाद्य विषयपर आक्षेप या परिहार किये जाने चाहिये ।
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सूत्रका यह अभिप्राय नहीं कि समासे बाहर शत्रुसे अपभाषण या वाग्युद्ध छेडा जाय । इसका यह भी अर्थ नहीं कि शत्रुकी अनुचित बातका खण्डन भी न किया जाय । सूत्रकारका तात्पर्य यह है कि सभा के ही शत्रु के साथ वाग्युद्धका स्वाभाविक क्षेत्र होनेके कारण वहां शत्रुकी जोर से सत्तेजनाका कारण पाकर भी अपना वक्तव्य संयत सुसभ्य भाषामें रखना