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चाणक्यसूत्राणि
है। स्पष्ट शब्दों में जितेन्द्रियता ही मानवधर्म मानवशास्त्र या धर्मशास्त्र है । अध्यात्मकी जो सर्वोत्कृष्ट साधना है वही जितेन्द्रियता है । मनुष्य में जो मनुष्यता है वही तो उसकी बात्मशासनकी शक्ति है। मनुष्य के मनमें स्वभावसे ही सदसद्विचारबुद्धि रहती है । या तो इन्द्रियों को अपने शास. नमें रखकर जितेन्द्रिय बने रहने या इन्द्रियों से शासित होकर इन्द्रियाधीन हो बैठने की स्वतंत्रता ही मनुष्य के मनका स्वरूप है । अपना जिते. न्द्रिय मन ही मनुष्य के लिये प्रत्येक क्षण स्वाध्याय करने योग्य सच्चा ज्ञानअन्य या शास्त्र है। वेदशास्त्रों का प्रादुर्भाव उत्कृष्ट मानवम्नमें से ही हुमा है । मानव से ऊंचा संसार में कुछ नहीं है ।
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा । तम्यन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथः ॥ उपनिषद् जो इन्द्रियों को शान्त रखने वाले शास्त्रका ज्ञाता तथा तदनुकूल व्यवहार अ.नेवासा होता है उसके योगयुक्त मनसे उपकी इन्द्रियां सारथीके वश में रहनेवाले सुशिक्षित अश्वोवे. समान उपके वश में रहती है ।
शुचि भूपयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंकिया। प्रशमाभरण पराकमः स नयापादितसिद्धिभूषणः । भारवि सदाचारी अनुभवी विद्वानों के सत्संगमें रहकर सोखा हुआ शुचिशास्त्र मानवदेहका भूषण है । ( नहीं तो विद्वान् पुरुष शोचनीय होता है । ) अपने कामक्रोधादि विकारों पर विजय पाकर शान्त रहना शास्त्रज्ञताकी मलंकिया है । ( नहीं तो शास्त्रज्ञता बन्ध्या है।) अवसर मानेपर अन्याय तथा अत्या. चारके विमोध शूरता दिखाना ही इन्द्रियविजयसे मिलनेवाली शान्ति का भूषण है । ( नहीं तो निस्तेज कायर शान्ति मनुष्य का परिभव कराने लगती है।) नीति अर्थात् विवेकसे प्राप्त होनेवाली सिद्धि हो उस पराकमका भूषण है। अविवेकी साहसी मनुष्यको काकतालीयन्यायसे कभी कभी दिखावटी सिद्धि मिल तो जाती है परन्तु जब नहीं मिलती तब उसके