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लोभीको प्रभु बनाने से हानि
( प्रभु बनाने योग्य ) सानुक्रोशं भर्तारमाजीवेत् ॥ २८१ ॥
जो
प्रभु अपने सेवककी मनुष्यताका सम्मान अपनी मनुष्य. ताके समान ही करता हो वही सेव्य बनाने योग्य होता है ।
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विवरण - निर्दय प्रभुके आश्रय से जीविका संदिग्ध होती तथा भवनतिकी संभावना बनी रहती है। यदि किसी कारण सदय प्रभुसे धन न भी मिलसके तो भी दया तो सुलभ रहती है ।
पंच त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि ।
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविन: । ( विदुर )
मनुष्य के साथ मित्र, अमित्र, मध्यस्थ, उपजीव्य तथा उपजीवक ये पांच अवश्य लगे रहते हैं । उसे अपने जीवननिर्वाह के लिये कुछ लोगों का सहयोग लेना ही पड़ता है ।
सेवितव्यो महावृक्षः कलच्छायासमन्वितः । यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते ॥
फळ तथा छाया दोनोंसे सम्पन्न महानुक्षकी सेवा करनी चाहिये । दैववश फल न भी मिल तो भी छाया तो कहीं नहीं चली जाती ।
( लोभीको प्रभु बनाने से हानि )
लुब्धसेवी पावकेच्छया खद्योतं धमति ॥ २८२ ॥
सहानुभूतिहीन प्रभुका सेवक अग्निकी इच्छा से खद्यतमे फूँक मारकर उससे आग जलाना ( अर्थात् बैलसे दूध दुहना )
चाहता है ।
विवरण- जैसे खद्योत सेवी मानव वह्निलाभ से वंचित रहकर अपने ही भ्रम से विफलमनोरथ होता है, इसी प्रकार लुब्धसेवी मानव अपने पुरुषपररीक्षादोपसे अपने ही भ्रमसे विफलमनोरथ होता है।