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चाणक्यसूत्राण,
उस कृपणको समाजका अहित करनेवाला अपराधी तथा दातापनके भाम. प्रसादसे वंचित करके पश्चात्तापग्रस्त दुखी बनाडालता है।
विपन्न सरपुरुषकी सहायता. पाठशाला, धर्मशाला, पुल, घाट, प्याऊ, औषधालय मादिके निर्माण तथा संचालन, भूचाल, जलप्रलय, महामारीसे त्राण आदि समाजोपयोगी कार्यों में अपनी सद्पार्जित धनशक्ति व्यय करना " दान" है। दस्यु, चोर, व्यसन, विपत्ति, राष्ट्रविप्लव मादिमें धनका विच्छिन्न होजाना " नाश' है । कुटुम्ब, अतिथि, स्वजन, माश्रित. तथा अपनी जीवनयात्रामें धनका व्यय होना " भोग" कहता है। जिस कृपण मानव में भोग और दानकी बद्धि नहीं होती उसके धनका नाश अनिवार्य है और उसका धन उसके लिये अनर्थ या शिरःपीडा मात्र होता है ।
अकुलीनोऽपि कुलीनाद्विशिष्टः ।। २६० ।। अपनी धनशक्तिको समाजसेवामें नियुक्त करनेवाला धनी व्यक्ति अकुलीन होने पर भी समाजसेवासे विमुख रहनेवाले कुलीनसे श्रेष्ठ होजाता अर्थात् अधिक सम्मान पाने लगता है।
विवरण- बात यह है कि समाजसेवक धनवानोंके पास चाहे वे कुलीन हों या अकुलीन समाजको अपनी धनशक्तिके सदुपयोगसे शक्तिमान् बनाये रखनेवाला भौतिक सामर्थ्य संगृहीत होजाने के कारण समाजमें उनकी प्रतिष्ठा होने लगती और वे समाजकी आशाओं के केन्द्र बनजाते हैं। उनके पास समाजोद्वारक साधनों का संग्रह होजाना ही उनकी प्रतिष्ठाका कारण होता है। किन्तु कुलीन लोग धनी होनेपर भी समाजसेवा न करें तो वे कुलीनतासे पतित तथा समाजकी भौतिक सेवासे मिलनेवाली प्रतिष्ठासे, घंचित होकर समाजद्रोहके कलंकभागी होते हैं ।
आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा तार्थदर्शनम् । निष्ठा वृत्तिस्तपो दानं नवधा कुललक्षणम् ॥