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चाणक्यसूत्राणि
__ (परधनलोलुपतासे हानि ) परविभवेष्वादरोपि विनाशमूलम् ।। २६७ ॥ दूसरोंके धनोंको लोभनीय दृष्टि से देखना भी मानवके सामा. जिक वन्धनका घातक तथा सर्वनाशका कारण होता है ।
विवरण- मनुष्य धनलोभसे भ्रमिष्ठ होकर अपनी समाजकल्याणकारी कर्तव्यबुद्धि या कार्याकार्यविवेकको खोबैठता है । परविभवोंका लोभ समाजमें अशान्ति, पाप तथा विवाद पैदा करता है। पाठान्तर- परविभवेष्वादरो विनाशमूलम् ।
(परधनकी अग्राह्यता) पलालमपि परद्रव्यं न हर्तव्यम् ॥ २६८।। किसीका एक तिनका जितना क्षुद्रतम धनतक नहीं चुराना चाहिये।
विधरण- अनधिकारपूर्वक किसीकी क्षुद्रतम वस्तु लेना भी अपहरण या चोरी है। चोरीके अपराधकी गुरुता या लघुताका अपहृत वस्तुकी गुरुता लघुता के साथ कोई संबन्ध नहीं है । चोरी किसी कर्मका नाम नहीं है । चोरी तो भावनाका नाम है । चोरीकी भावना ही चोरी है । चोर क्षुद्रतम वस्तुको चोरी करके अपनी इस मनोवृत्तिका परिचय देता है कि उसका मन किसी बडो वस्तुको चोरीके अवसर ढूंढ रहा है। समाज में चोरी की भावनाको मिटा डालना ही समाजकल्याणकारिणी सच्ची समाजसेवा है। राजा या राज्याधिकारी लोग स्वयं इस आदर्शको अपनाकर ही अपने राजचरिअके आदर्शको समाज में सुप्रतिष्ठित कर सकते हैं।
परद्रव्यापहरणमात्मद्रव्यनाशहेतुः ॥ २६९ ॥ पराये द्रव्यका अपहरण अपने द्रव्यके विनाशका कारण बन जाता है।