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शत्रुको नष्ट करो
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करके ही अन्नग्रहण करने का अधिकार प्राप्त होता है। इस सेवासे बचकर लोगोंको समाजकी सेवाके नामसे ठगना राष्ट्रीय चोरी है ।
पाठान्तर- नास्ति चौरेषु विश्वासः। ( इस समय शत्रुता न करनेवाले भी शत्रुको नष्ट करने में प्रमाद मत करो )
अप्रतीकारेवनादरो न कर्तव्यः ॥ २५२ ॥ शत्रुको प्रतिकारमें उदासीन देखकर उसकी उपेक्षा न करनी चाहिये।
विवरण- अपनी किसी परिस्थिति से विवश होकर इस समय प्रतीकारहीन बनकर रहनेवाले राष्ट्रद्रोही परराष्ट्रप्रेमी शत्रुओंकी ओरसे असावधानी मत बरतो। उन्हें कुछ न करता देखकर उनी ओरसे असावधान मत होजाओ । उनसे शत्रुता मत स्यागो और उन्हें मित्र मत बनायो । वे अप्रतीकारी होने की अवस्थाके परिवर्तन होते ही प्रतीकार-परायण होने में देर नहीं करेंगे । शत्रु की भोली मूरतों तथा चाटुकारिताभरी मीठी बातोंके धोखे में आकर यह कभी मत भूलो कि शत्रु दा शत्रु ही रहता है । चाणक्य राजनीतिशास्त्र में कहा हैशत्रोरपत्यानि वशंगतानि नोपेक्षणीयानि बुधैर्मनुष्यैः । तान्येव कालेन विपत्कराणि वतासिपत्रादपि दारुणानि ॥
बुद्धिमान् राजनीतिज्ञ लोग घटनाचक्रवश अपने वश में आये शत्रुके वंशजोंकी उपेक्षा न करें । समय मानेपर आजके चुपचाप दीखनेवाले वे शत्रवंशज लोग तलवारकी धार से भी अधिक विपत्ति बुलानेवाले बनने में देर नहीं करेंगे। • ( अधिक सुत्र ) अप्रतीकारेषु व्यसनेष्वनादरोन कर्तव्यः। असाध्य विपत्तियोंकी भी उपेक्षा न करो। विवरण- प्रतीकार्य विपत्तियों को अप्रतीकार्य समझकर निराश नहीं