________________
२१८
चाणक्यसूत्राणि
देवता सत्यस्वरूपका अपमान करके मास्महत्या नामके अपराधका अप. राधी बन जाया करता है । धर्म-द्वेष धर्मका कुछ नहीं बिगारता । वह तो मनुष्यकी अपनी ही पास्महत्या है। जब तक मनुष्य अपने अन्तरास्माका नृशंस वध नहीं करता, तब तक धर्म-द्वेष कर ही नहीं सकता। उसे धर्मद्वेष करनेसे पहले आत्महत्या करनी पड़ती है। धर्मद्वेषी लोगोंकी जो मारमहत्याएँ हैं वही तो उनका धर्मापमान है और यह उनका अपनेसे ही अपनी शत्रुता है।
पाठान्तर- धर्माद्विपरीतः पापः ।
धर्म अर्थात् मानवोचित कर्तव्य-पालनसे विपरीत कर्तव्य-हीनताकी जो स्थिति है वही तो पाप है।
समाजमें मनुष्यताके संरक्षक मानव-धर्मको न अपनाकर उससे विपरीत आचरण करने लगना ही पाप है।
अथवा- धर्म से विपरीत भाचरण करनेवाला मनुष्य पाप अर्थात् पापी होता है।
ऐसा मानव नियमसे धर्मविरोधी भाचरण करता है । इस अर्थ में पाप करनेवाला पाप कहा गया है । इसी अर्थमें पापः यह पुलिंग प्रयोग शुद्ध होता है। पाप शब्द नपुंसकलिंगका होने से यह अर्थ व्याकरणसंगत है। पाठान्तर- यत्र यत्र प्रसज्यते तत्र तत्र ध्रुवा स्मृतिः।।
(ध्रुवा रतिः ) मनुष्य जिस किसी भले-बुरे काममें लग जाता है उसे उसी कर्मकी चिरस्थायी स्मृति रहने लगती, उसके मनमें उसकी अटल छाप पड जाती या उसे उसी कार्यके सम्पादनका नैपुण्य प्राप्त होजाता है ।
शुभ कर्मकी पुण्यस्मृति तथा अशुभ कर्मकी पापस्मृति ठहर जाती है। पुण्यस्मृति हो तो उसे साधुवाद तथा आगेको शुभ कर्मकी प्रेरणा देती रहती है। पापस्मृति हो तो उसे मन ही मन धिक्कारती, नोच-नोचकर खाती और भागेको भी पापकों में ही प्रवृत्त रखती है। एक वार किया हुमा