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चाणक्यसूत्राणि
मूलक होता है । इस निर्बुद्धितामूलक कौतूहलको संयत रखकर शिष्टाचार तथा सुरक्षाके प्रतिकूल आचरण करनेसे रोकना ही इस सूत्रका अभिप्राय है । सूत्र कहना चाहता है कि मनुष्य अपने निर्बुद्धि तामूलक कौतूहलको रोके। वह कुतूहलाधीन होकर शिष्टाचार तथा मारमस्थितिकी सुरक्षाके प्रतिकूल भाचरण न करे।
(राज्यसंस्थाका नौकरशाही बनजाना पापमूलक तथा पापजनक )
वल्लभस्य कारकत्वमधर्मयुक्तम् ॥ २४५ ॥ स्वामीके ऊपर मुंहलगे अनुचरोंका आधिपत्य अधर्मयुक्त ( अधर्मप्रसारक ) होता है।
विवरण- स्वामीके ऊपर अनुचरोंका आधिपत्य राष्ट्रमें अधर्मयुक्त मर्थात् अधर्मप्रसारक होता है । इस प्रकारकी घटना स्वामीकी धर्मपालनकी अयोग्यताके कारण होती है। राजाके अधर्माभिभूत होजानेपर जब उसका कोई चरित्र नहीं रहता, तब उसके ऊपर अनुचरोंका शासन स्थापित होजाता है । या तो राजाकी अप्रतिभा या उसकी विषय-लोलुपता, दो कारणोंसे प्रभुतालोभी भृत्योंको अधर्मसे राज्य लूटने का अवसर मिल जाता है। इस सूत्र में बल्लभकी कारकताका अर्थ अपने स्वामीको अपनी माज्ञामें रखना है । यह राजाकी ऐसी हीन स्थिति है जैसी कि अध्यापक विद्यार्थीको अपनी इच्छानुसार न चलाकर विद्यार्थीके अनुसार चल पडा हो । कारकत्वका अर्थ कारयितृत्वसे है । राजाका धार्मिक होना अनिवार्य रूपसे मावश्यक है। धार्मिक राजा राष्ट्रकी सबसे बडी मावश्यकता है। राजापर धर्मका ही बाधिपत्य रहे इसीमें राजा प्रजा दोनोंका कल्याण है । उसके ऊपर धर्मातिरिक्त और किसीका भी प्रभाव होना कल्याणकारक नहीं है। प्रजाका कल्याण ही तो राजधर्म है । राज्यभरमें सत्यके प्रभावका तपते रहना ही तो प्रजाका कल्याण है । जो राजा अपने ऊपर धर्मके अतिरिक्त किसी भी व्यक्तिका माधिपत्य स्वीकार किये होगा वह निश्रितरूपसे धर्मभ्रष्ट होचुका होगा। उसके राज्य में अधर्मका नग्न नृत्य होने लगेगा और अधर्म अपना प्रबल भाधिपत्य जमा बैठेगा। राजा अपने ऊपर सत्यकी भट ल