________________
कापुरुषकी कर्तव्यहीनता
१११
उदरभरि होना पापी तथा हीन जीवन है । " तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः"। जो देवोंके दिये भोजनको उन्हें न सौंपकर स्वयं खाजाता है वह चोर है। पाठान्तर- यः स्वजनं भोजयित्वा शेषं भुक्ते सोऽमृतभोजी ।
(आय बढानेके उपाय ) सर्वानुष्ठानदायमुखानि वर्धन्ते ॥१३७॥ राष्ट्रमें भूमि, धन, व्यापार, शिल्प आदि समस्त प्रकारके राष्ट्र हितकारी कर्तव्योंके सुसंपन्न होते रहनेपर ही राज्यकी आयके द्वार बढते हैं।
विवरण- जो राज्याधिकारी प्रजाका शोषण करके केवल अपनी जेब भरना ध्येय बनाकर मालसी बन जाते हैं और राज्यकी कर्मशक्ति बढ़वाने के लिये अपेक्षित उद्यम नहीं करते उनकी राज्यश्रीकी वृद्धि होने की कोई आशा नहीं है। उनका संचित धन तो कम होने लगा और आयके द्वार तथा संभावनायें घटने लगती हैं। पाठान्तर- सर्वकार्यानुष्ठानादायमुखानि वर्धन्ते । राष्ट्रकी कर्मशक्तिके काममें आते रहने से राष्ट्रके आय के द्वार बढ जाते हैं ।
(कापुरुषको कर्तव्यहीनता ) नास्ति भीरोः कार्यचिन्ता ॥ १३८॥ भीरु कापुरुष अपने मनमें वीरोचित कर्तव्यकी चिन्ताको स्थान नहीं देता। वह कर्तव्यहीन रहनेका कोई न कोई बहाना बना लेता है।
विवरण- कापुरुष शत्रुदमन करके सत्यरक्षा करने में असमर्थ होता है । वह अपने मन में सत्यरक्षाकी कल्पनातकको स्थान नहीं देता। उसका शत्रओंका चरणचुम्बन करना अनिवार्य है।
अथवा- भयाक्रान्त मनुष्य मनमें कर्तव्यकी मालोचना नहीं कर सकता। भयसे बुद्धि मन्द होती और कर्तव्यचिन्ता क्षीण होजाती है । पाठान्तर-नातिभीरोः कार्य चिन्ता।