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चाणक्यसूत्राण
पेक्ष विचार होगा तो स्पष्ट समझमें भाजायेगा कि वास्तव में उसकर दोष नहीं है। किन्तु वह उस गुणीकी देशकालपात्रानुसारिणी ग्यवहारकुशलता ही है। उपर कह चुके हैं कि दोष और गुण दोनों ही यूथचारी हैं। ये यूथभ्रष्ट होकर नहीं रहते । जहाँ एक गुण होता है, वहां सभी गुण मा इकट्ठे होते हैं।
( विद्वान् भी निन्दकोंके लाञ्छनोंसे नहीं बचते )
विपश्चित्स्वपि सुलभा दोषाः ॥ १७० ।। स्थूल हांप्टस ज्ञानांक व्यवहारोंमें भी दाष निकालना सहज हैं। विवरण- गणदोषका विचार मापात दृष्टिसे करने की वस्तु नहीं है। कार्याकार्यविवेक के द्वारा गहराई में जाकर विचार करनेसे ही सच्चे गुण दोषोंका परिज्ञान हो सकता है। सूत्र यह कहना चाहता है कि ज्ञानको दोषी सिद्ध करके स्वयं दोषी और अविचारशील बनने की भूल न करनी चाहिये । इस वाक्यका उद्देश्य किसीके दोषोंका समर्थन करना नहीं है। किन्तु दोषारोपण द्वारा दोषसमर्थन करनेकी प्रवृत्तिको निन्दित करना है।
मधवा-विस्मृति, व्यग्रता, तात्कालिक शीघ्रता, अनभिज्ञता, तथा शारीरिक असमर्थता आदि कारणोंसे ज्ञानी के व्यवहारमें भी मापाततः दोष दिखाई देसकते हैं। इस प्रकार के दोष, दोषों (मर्थात् अक्षम्य अपराधों । की श्रेणी में नहीं आते । दोष तो वही है जो मनुष्यकी दोषी भाव नासे होता है। विद्वानोंकी निर्दोषता तो उनके मनमें रहती है। विद्वान् वही है जो मानस या मावनाश्रित दोष कभी नहीं करता । शरीर, इन्द्रिय तथा मनकी विकृति दोष कहाती है । इन तीनोंमें अयथार्थता, अनभिज्ञता तथा अनृतका समावेश होसकता है । रोग असामर्थ्य आदि शारीरिक दोष हैं। सनसे भी कुछ भूल हो सकती है । अन्धता, बधिरता आदि इन्द्रियदोषहैं । ये भी भूलका कारण बन सकते हैं । दूरता आदि विषयदोष हैं । इनके कारण भी भूलें होती हैं । अनभिज्ञता, अनवधानता, क्रोध, असूया, ईष्या, लोभ, मोह मादि मानस दोष हैं। मानस दोष दो प्रकारके होते हैं। कुछ तो