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चाणक्यसूत्राणि
अवन्ध्य कोपस्य विहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः ॥ संसार के लोग अपने कोपको निष्फल न जाने देने तथा आपत्तियों का सिर 'कुचल डालनेवालेके बसमें अपने बाप आजाते हैं । मित्र या शत्रु कोई भी अमर्षशून्य मानवका आदर नहीं करता । ( मूढों का दानक्लेश ) दातव्यमपि बालिशः क्लेशेन परिदास्यति ॥ २१२ ॥
मूढ मानव दातव्य वस्तुको भी बाह्य प्रभाव से देता है । विवरण- मूढ मानव देना मनमें सोचकर भी तथा वाणीसे देना स्वीकार करके भी बुरे ढंगसे, बडे कष्टसे संदिदान चित्तसे तथा स्वार्थबुद्धि से देता है । वह सरलता, नम्रता तथा कर्तव्य - बुद्धिसे देता ही नहीं ।
पाठान्तर- दातव्यमिति
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मूढ मानव देना कर्तव्य होनेपर भी क्लेशसे देता है ।
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यह समस्त संसार दानके ही माहात्म्यसे चल रहा है । यह सृष्टि विधाताके आत्मदान से ही तो सप्राण होरही है । मातापिताके आत्मदान से मानवका भरण-पोषण होता है । वे सन्तानपालनमें आत्मदान किये रहते है । समाजके आत्मदानसे समाज कल्याणकारिणी संस्थाओं तथा विपद्ग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पोषण होते हैं । यदि मानवको सामाजिक सहायता मिलनी बन्द होजाय तो उसकी जीवन-यात्रामें पद-पदपर विघ्न भाखडे हों ।
जैसा समाज होता है उसी प्रकारका सहयोग प्राप्त होता है । समाजके बुरे-भले होनेपर ही मनुष्यको भले-बुरे सहयोग मिलते हैं । समाजके साथ व्यक्तिका जीवन-मरणका अकाट्य, अभेद्य, अच्छंय सम्बन्ध है । इस दृष्टि से अपने समाज में मनुष्यता के संरक्षक सद्गुणोंकी वृद्धिके लिये अपने उपार्जनका कुछ भाग अनिवार्य रूपसे दान करना मनुष्यका परोपकार नहीं किन्तु स्वहितकारी कर्तव्य है । गीताके शब्दों में
भुंजते ते स्वयं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।