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अपमान करना अकर्तव्य
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इस सूत्र में शत्रु के प्रति शाब्दिक क्रोधका प्रदर्शनमात्र ही निषेध्य अपमा नकी परिभाषा में आरहा है । इस अपमानसे शत्रु विजित न होकर विजेता बनजाता है । हानि पहुँचानेवालेके साथ बदला लेनेकी भावनासे जो शाब्दिक असार बर्ताव किया जाता है उसीको यहाँ अपमान कहा जारहा है । शत्रुविरोधका कार्मिक न होकर कोरा शाब्दिक होना ही यहां अपमानकी परिभाषा है। शत्रुको मिटाडालना कदापि निन्दनीय नहीं है । हानि पहुँचानेवालेको पराभूत करना और संभव हो तो मिटाडालना व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकारके कल्याणका कारण होनेसे निन्दनीय न होकर प्रशंसनीय ही है । परन्तु यह शाब्दिक अवमन्ता दूसरेका अपमान करनेसे पहले अपनेको हो मनुष्योचित बर्तावकी स्थितिसे गिराकर अपना ही अपमान करचुका होता है । अपनी मनुष्यताको खोदेना ही स्वयं अपमानित होना है । किसीका भी सिर दूसरेके किये अपमानकारी बर्ताव से नीचा नहीं होता | स्वाभिमानीके सिरको कुचला तो जा सकता है परन्तु उसे कोई भी नीचा नहीं कर सकता | स्वाभिमानी व्यक्ति अपने सिरको ऊँचा रखकर ही शत्रु मित्र उदास सबके साथ बर्ताव करता है। दूसरे बर्ताव के समय ही सिर ऊँचा-नीचा रखनेका प्रश्न उपस्थित होता है। जो अपना सिर ऊँचा रखकर दूसरे से व्यवहार करता है उसका व्यवहार कभी भी अपमानजनक होनेके कलंक से कलंकित नहीं होता । दूसरेका अपमान करनेकी भावनाले बर्ताव करनेवालेका अपमानकारी बर्ताव दूसरेको निन्दित न करके अपनी ही मनुष्यताको लांछित करडालता है 1
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सच्चे विजिगीषु लोग शत्रुके साथ बर्ताव करते समय भी अपमान करनेकी भावना कभी कोई बर्ताव न करके, अपने आपको शत्रुको दृष्टिमें भी मनुष्यतासे हीन सिद्ध न होने देकर अपने मनुष्योचित गौरवको समुज्ज्वल रखकर, अपने वीरोचित ढंगले शत्रुका सिर नीचा करके छोड़ते हैं । दूसरेका अपमान करनेकी भावना ही मूलमें भूलसे भरी हुई है । मनुष्यताकी कसौटी पर परखने से प्रतीत होता है कि दूसरेका अपमान करना वास्तव में अपने