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विद्वानकी निन्दा निन्दकका अपराध
अनभिज्ञता, व्यग्रता, अनवधानता मादिसे जन्य होते हैं, कुछ ईर्ष्या, लोभ, मोह मादिसे बुद्धि पूर्वक आचरित होते हैं । अक्षम्य अपराध करानेवाले ये ही दोष होते हैं । विद्वानों में इन बुद्धिपूर्वक आचरित अक्षम्य अपराधों के कराने. वाले दोषोंका होना मसंभव है। इस दृष्टिसे जहां कहीं ये अक्षम्य अपराध करानेवाले दोष दृष्टिगोचर हों वहीं दोषयुक्त लोगोंको अविद्वान तथा समाजके शत्रु समझना चाहिये ।
इस प्रसंगमें भूल विषयक विश्वव्यापी किंवदन्तीपर विचार करना अप्रा. संगिक न होगा- “ भूल मनुष्यसे हो ही जाती है " यह एक अविचारित भावना संसारभरमें प्रचार पाये हुए है। भूल दो प्रकार की होती हैं एक दैहिक दूसरी मानसिक । जहांत दैहिक या एन्द्रियिक भूलोंका संबंध है वहां तक तो यह बात स्वीकार की जासकती है। परन्तु जहां इस वाक्यक मानवकी मानस भूलोंसे संबन्ध है, वहां यह वाक्य अत्यन्त भ्रामक नया असत्यका प्रचारक है । वह मनुथ्य मनुष्य ही नहीं जो अपनी भावनाक विकृत ( बुरी) होलेने देता है । भावना कभी भी अबुद्धिपूर्वक ( भूल से , बुरी नहीं होती। इन सब दृष्टियोसे ऐसे वाक्योंका बहिष्कार होना चाहिये एसे वाक्यांसे मनुष्य अपनी भूलोंका समर्थन करते पाय जाते हैं ! मे निबल वाक्य भूलोंके समर्थन में ही काम पाते हैं । मानवके चरित्रनिमा.. में इन वाक्योंका बडा ही दूषित स्थान है ।
(विद्वान्की निन्दा निन्दकका अपराध )
नास्ति रत्नमखण्डितम् ॥ १७१॥ जैसे प्रत्येक रत्नमें मलिनता, वक्रता, विषमता आदि कोई न कोई त्रुटि निकाली जा सकती है, जैसे सर्वजात्युत्कृष्ट मणि भी सर्वथा निर्दोष नहीं होती इसी प्रकार विद्वानोंकी भी शारीरिक ऐन्द्रियिक भूलें पकड़ी जासकती है।
विवरण-- जैसे रत्नका दोष निकालकर अर्थात् उसे उस दोपसे अलिस करके ही उसकी अकृत्रिमता प्रतिष्ठित होती है, जसे पहले रत्नमें कृत्रिमताका भारोप करके, पीछेसे उसका अपवाद करके उसे अकृत्रिम सिद्ध