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व्यसनासक्तिसे हानि
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नेतृत्व में प्रयुक्त हुई भौतिक शक्तिमें ही राज्यलक्ष्मीका वास है। दुष्कर कर्ममें हाथ लगाना साहस कहाता है । जब तक मनुष्य विनोंकी उपेक्षा करके सत्कार्यसम्पादनमें सोरसाद आत्मसमर्पण नहीं करता, तब तक उसे शुभ प्राप्त नहीं होता।
न संशयमनारुहा नरो भद्राणि पश्यति ।
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ॥ मनुष्य अपने आपको संकटग्रस्त बनाये बिना शुभ नहीं पाता । अपनेको संकटमन बना देनेपर यदि जीवित रह जाता है तो भौतिक शुभ परिणामका दर्शन करता है । मरनेका अवसर भाजाय तो “हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ' गीताके शब्दों में शुभभावनाके नामपर मर मिटनेके सन्तोषको अचूक साथीके रूपमें अन्ततक साथ रखकर मरता है।
. ( व्यसनासक्तिसे हानि )
व्यसना” विस्मरत्यप्रवेशेन ॥ १५१॥ व्यसनासक्त मनुष्य ध्यानाभावसे कर्तव्यविमूढ हो जाता है। विवरण-व्यसनासक्त मनुष्यका बहिर्मुख मन अपनी बहिर्मुखतासे कर्तव्यके मर्मस्थलमें प्रवेश न कर सकने के कारण उसके लिये भीतरसे उत्साह न पाकर अपना कर्तव्य भूल जाता है।
ज्यसनासक्त मनुष्य व्यसनासक्तिजन्य उत्साहहीनतासे कर्तव्यके मर्म या सम्पत्ति के मार्गतक न पहुंचा होकर कर्तव्यको भूल जाता या उसे समझ ही नहीं पाता । मनुने भाखेट द्यूत ( शतरंज ताश पहेली )दिवास्वप्न परनिन्दा परचर्चा विषयलोलुपता तथा मद आदि व्यसन गिनाये हैं । राजा या प्रजा प्रत्येक व्यक्ति इन महादोषोंसे बचे ।