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चाणक्यसूत्राणि
( शत्रुप्रयत्नोंका निरीक्षण)
अरिप्रयत्नभभिसमीक्षेत ।। ५५ ।। शत्रुओंके प्रयत्नों, चेष्टाओं, उद्यमों, राज्यलाभो, परराष्ट्रासे सन्धियों आदिको अपने गुप्तचरोंके द्वारा ठीक ठीक जाने ( और आत्मरक्षामें पूरी सावधानी बरते )।
विवरण- विजीगीषु राजा सन्धि या विग्रह प्रत्येक अवस्था में शत्रु. ओंके प्रयत्नोंपर पूरी दृष्टि रखे । वह शत्रुपक्षके श्वास प्रश्वासोतकका परिचय प्राप्त करता रहे। पाठान्तर- अरिप्रयत्नमभिसमीक्ष्यात्मरक्षयावसत् । राजा शत्रुके प्रयत्नोंपर दृष्टि रखता हुआ आत्मरक्षा करे ।
सन्धायकतो वा ॥६०॥ विजिगीषु राजा सन्धि या विग्रह प्रत्येक अवस्था में शत्रुके प्रयत्नोंपर सुतीक्ष्ण दृष्टि रखता रह ।
अरिविरोधादात्मरक्षामावसेत् ।। ६१॥ राजा अपने राष्ट्रको बाहरी तथा आभ्यन्तरिक शत्रुके लूट, दाह, अनीति आदि पापों से बचाता रहे।
(सन्धिका अवसर शक्तिहीनो बलवन्तमाश्रयेत् ।। ६२॥ शक्तिस्थापनाका इच्छुक राजा किसी धार्मिक शक्तिशाली राजाको मित्र बनाले और उससे अपनी स्वतन्त्रताको सुरक्षित करे।
विवरण- राष्ट्र , सेना, दुर्ग तथा कोषरूपी शक्तियोंसे असमृद्ध राजा. इन सब शक्तियों से सम्पन्न किसी प्रतापी धार्मिक राजाके साथ मित्रतम करके उसके सहयोगसे शत्रदमनकारिणी विशालशक्तिकी सष्टि करे ।