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राजाकी आत्मरक्षाका राष्ट्रीय महत्त्व
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रक्षा करती है । राजा प्रजाके अनुमोदनसे ही राजा बनता है। यही कारण है कि प्रजाका अहित करनेवाले राजाका मिटजाना संसारकी अटल घटना है । जो राजा स्वेच्छाचारी बनकर राज पुरुषों की एक अलग शासक जाति बनानेकी भूल कर बठता है, वह निश्चय ही अपने ऋर हाथोंसे आत्महत्या कर लता है । इस दृष्टि से राजाको अपनी कर (टैक्स ) देनेवाली प्रजा, मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, कारागाराधिपति, कोषाध्यक्ष, कार्यनियोजक, दण्डपाल, दुर्गपाल, राष्ट्रपाल, अटवीपाल, गुप्तचर भादिपर अपना प्रभुत्व स्थिर रखते हुए तथा अपनी दण्डनीतिका यथायथ प्रभाव डालते हुए आत्मरक्षा करनी चाहिये। इन सबपर अपना प्रभाव बनाये रखना तथा इनमे से किसकिो भी अपने ऊपर प्रभाव स्थापित करनेवाला न बनने देना, राजाकी राजकीय प्रासादों में बैठकर करनेकी सुमहती तपस्या है। यह तपस्या ही उसकी दण्डनीति है । इसमें वह जहां कहीं भूल करता है वहीं मार खा बैठता और भक्षित होजाता है।
(राजाकी आत्मरक्षाका राष्ट्रीय महत्त्व ) आत्मनि रक्षिते सर्व रक्षितं भवति ।। ८४ ।। राजाकी आत्मरक्षा रहनेपर ही समस्त राष्ट्र रक्षित रहता है। विवरण- राजा समस्त राष्ट्रको सदिच्छाओं तथा शक्तियों का मूर्त प्रतिनिधि होता है । उसपर प्रत्यक्ष माक्रमण होना राष्ट्र पर माक्रमण होना, उसका पराभूत होजाना राष्ट्रका पराभूत होना होजाता हैं । राजापर माक्रमण या उसका पराभव गष्ट की अवस्थाको रात्रिमें दीपकहीन घरके समान अन्धकारमय बनाडालता है। इसलिये राजा लोग, अपनी दण्डइस्ततासे अहंकाराभिभूत न बनें और दण्डनीतिका दुरुपयोग न करें। वे ऐसा करके प्रजाके शत्रु तथा दुराचारी स्वार्थी माततायियोंके मित्र न बनें और राज्यद्रोहरूपी बात्म द्रोह करके आत्मघात न करें।
आत्मायत्तौ वृद्धिविनाशौ ॥ ८५ ।। मनुष्य के वृद्धि और विनाश अपने ही अधीन होते हैं ।