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दण्डाभावले हानि
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पाठान्तर-दण्डाभावे त्रिवर्गाभावः ।
गष्ट में दण्डव्यवस्थाका स्थान न रहने पर त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ, काम तीनों आरक्षित होकर नष्ट होजाते हैं। दण्ड न होनेपर दुष्ट प्रबल होजाते हैं । तब प्रजाके त्रिवर्गके विनाशसे देश में हाहाकार मचजाता है ।
राजभिः कृतदण्डास्तु शुद्धयन्ति मलिना जनाः । कृतार्थाश्च ततो यान्ति स्वर्ग सुकृतिनो यथा ॥ पापी लोग राजाओंसे दण्ड पा पाकर शुद्ध होनेसे कृताय होकर पुण्याम्मा बनकर पुण्यात्माओं के समान ही स्वर्ग पाजाते हैं।
अथवा-- 'क्षयः स्थानं च वृद्धिश त्रिवगों नीतिवेदिनाम् के अनुसार क्षय स्थिति तथा वृद्धि नीतिज्ञोंके त्रिवर्ग हैं । दण्डकी उचित व्यवस्था न रहनेपर न तो शत्रुक्षय होपाता है, न अपनी शक्तिकी भित्ति दृढ प्रतिष्ठित होती है. तथा न शकिकी ही वृद्धि होती है। इन तीनों के अभावका अवश्यंभावी परिणाम शत्रकी वृद्धि, अपनी शक्तिहानि तथा राज्यव्यवस्थाका उन्मूलन होता है। दगड ही राज्यव्यवस्थाकी आधारशिला है। दण्ड और न्याय पर्यायवाची शब्द हैं। जो दण्ड है वही न्याय है। जो न्याय है वही दण्ड है। अन्यायी दण्डव्यवस्था तो आसुरी संगठन है। असुरविनाश ही राष्ट्र धर्म है।
वधोऽर्थग्रहणं चैव परिक्लेशस्तथैव च । इति दण्डविधान दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ।। दण्ड विधान के विशेषज्ञोंने प्राणदण्ड, अर्थदंड तथा ताडनादि भेदसे दण्डको तीन प्रकारका बताया है। राष्ट्रमें असुरविनाशिनी दण्डव्यवस्था न रहनेसे अष्टवर्गका विनाश हो जाता है।
कृषिणिक्पथो दुर्गः सेतुः कुंजरबन्धनम् ।
खन्याकरबलादानं शून्यानां च विवेचनम् ॥ कृषि तथा हाटकी व्यवस्था, दुर्ग, सेतु, यात्रासाधन, खान, कोष, सैन्य. संग्रह तथा शून्य संपत्तियोंका विवेक ( अर्थात् उनका उपयोग तथा उनपर प्रजावर्गमेंसे किसीका स्वामित्वस्थापन ) यह राज्यका अष्टवर्ग कहाता है।