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विपरीत परिस्थितिमें कार्य करनेसे हानि
योग्य व्यक्ति कर्मको करे तो वह सफल होता है। उसी कामको अयोग्य व्यक्ति कर तो धसका सफल होना निश्चित हो जाता है। योग्यको ही काममें लगाना तथा योग्यको ही दान करना सफल होता है । दान करने के समय तथा दानके योग्य पात्रको पहचान लेने पर ही दानको सफलता निर्भर करती है ! जो जिस वस्तुको पानेका वास्तविक अधिकारी है वही उस वस्तुको पानेका सच्चा पात्र भी है। देय वस्तु दानका सच्चा अधिकारी न मिलनेतक दाताके पास धरोहरके रूपमें रहती है। दानी उसे योग्य पात्रको देकर उसपर कोई कृपा नहीं करता, किन्तु उसकी धरोहर लौटाकर स्वयं ही ऋणमुक हो जाता है । इस तस्वको समझकर दिये हुए दानका अपूर्व महत्व है।
(विपरीत परिस्थितिमें कार्य करनेसे हानि ) देवहीनं कार्य सुसाधमपि दुःसाधं भवति ॥१११ ॥ देवकी प्रतिकूलता होनेपर सुखसाध्य कर्तव्य भी दुःसाध्य दीखन लगते हैं।
विवरण- परन्तु पुरुषार्थी मनुष्यको कर्मकी दुःपाध्यता अर्थात् भौतिकसाधनहीनता देखकर निराश न होकर अपने प्रबल पुरुषार्थ से उस कर्मको साध्यकोटि में लाना है। पुरुषार्थ के सामने दुःसाध्यता नाम की कोई वस्तु नहीं है । पुरुषार्थ से मनुष्योंने दुलंध्य पर्वतोंको मार्ग देने तथा दुस्तर समुद्रोंको अपने ऊपरसे जाने देने के लिये विवश किया है। लोग प्रायः प्रवाहपातित होकर चलने वाले होते हैं । स्वयं मार्गनिर्धारण करना बहुत न्यून लोग जानते हैं। लोग पसारी प्रबाहके विरुद्र चलने को ही दुःसाध्यता तथा प्रवाह के साथ चलने को सुनाध्य ना मानते हैं । परन्तु पुरुषार्थीकी स्थिति इनसे निराली है। उसके सामने सब समय यही विचार उपस्थित होता रहता है कि क्या जो हो रहा है, उसी के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है ? या जो होना चाहिये उसीको करना मेरा कर्तव्य है ? पुरुषार्थी की दृष्टि में प्रवाहके