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चाणक्यसूत्राणि
है । परन्तु यह अर्थ भव्यावहारिक होनेसे स्वीकरणीय नहीं है । इससे यह पाठ अपपाठ है । उसका कारण यह है कि हीन यदि दुष्ट हो तो उससे विग्रह क्यों नहीं करना चाहिये ? यह बात इसमें नहीं बताई गई । अशान्तिका उत्पादक शत्र चाहे बलहीन हो तब भी उसे बलहीन होने के कारण अपेक्षित नहीं किया जा सकता । ऐसे समय उसकी बलहीनताको उसपर आक्रमण न करने या उसे उचित शिक्षा न देनेका कारण नहीं बनाया जा सकता। दुष्टको हीन देखकर उसकी उपेक्षा करना तो राष्ट्रद्रोह है। उसकी बलहीनताको ही उसपर माक्रमणका कारण बनाया जाना चाहिये । इसलिये बनाना चाहिये कि उसकी बलहीनताकी अवस्थामें ही तो विजय सुनिश्चित होती है।
न ज्यायसा समेन या ॥ ५६ ॥ अधिक भौतिक बलवाले या समान बलवालेसे भी विग्रह न छेडे।
विवरण- जिसपर विक्रम, बल तथा उत्साहनामक तीन शक्ति भधिक मा समान हैं उससे युद्ध ठानने का अर्थ स्वनाश ही होता या होसकता है ।
ऐसे अवसरपर तात्कालिक युद्धको स्थगित रखकर स्वयं तो शत्रुसे अधिक शक्तिशाली बनने तथा शत्रुको बलहीन बनाने के लिये जितना कालक्षेप मावश्यक हो उतना करके शत्रुदमनका प्रबन्ध करे । युद्धके विना शत्रुदमनका कोई उपाय संभव नहीं है । इसलिये युद्धको अनिवार्य मानकर संग्रामके लिये सदा सन्नद्ध रहना ही राजनीति है।
गजपादविग्रहमिव बलवद्विग्रहः ॥५७ ॥ बलवानसे युद्ध करना युद्ध में गजसेनासे निश्चित रूपमें हार. जानेवाली पदाति सेनाके युद्ध जैसा निर्बलका ही विध्वंसक होता है।
विवरण- गजारूढ सैनिकों के सम्मुख पदाति सेनाकी जो गति होती है, वही गति बलवान् शत्रुके सम्मुख निर्बलकी होजाती है। इस दृष्टिसे