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३) द्राविड संघ
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सिरि गुज्जपाद सीसो दाविड़ संघस्य कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो ||२४|| दर्शनसार अप्पा सुथ चयाणं मक्खणदी वज्जिदो मुणिदेहि । परियं विवरीयं वग्गणं नोज्जं ॥ २५ ॥ दर्शनसार पीजीटी उत्पसणं णत्थि फासुन णत्थि । सावज्जं ण हुमण्णइ ण गणइ हि कप्पियं अठ्ठे ॥ २६ ॥ कच्छ खेतं वसहि वाणिज्जं कारिकण जीवंतो ।
हंतो सीयलणीरे पात्रं पडरं स संजदि ॥ २७॥ पंचसय छब्बीसे विक्कम रायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिण महराजी दाविध संघो महामोहो |२७|| दर्शनसार
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श्री पूज्यपाद या देवनंदि आचार्य के शिष्य दुष्ट ब्रजनंदि दाविड़ संघ को उत्पन्न करनेवाले हुए । ये ग्रंथो के ज्ञाता और महान प्राभृत सत्यधारी थे। मुनिराजों ने उन्हें अप्राक या सचित्त चनों को खाने के लिय रोकें । परंतु वे नहीं माने और भ्रष्ट होकर विपरित प्रायश्चित आदि ग्रंथों की रचना की । उनके मतानुसार बीजों में जीव नहीं होते, मुनियोंको खड़े होकर भोजन लेने की विधि नहीं है। कोई वस्तु प्रासुक नहीं है । वह सावद्य भी नहीं मानते थे और गृह कल्पित अर्थ को भी नहीं मानते थे। कच्छार क्षेत्र वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए और शीतल जल में स्नान करते हुए उन्होंने पापोंका संग्रह किये। विक्रम राजा की मृत्यु के प्रचुर वर्ष बीतने ५२६ पर दक्षिण मथुरा में यह महामोहरूप द्राविड संघ उत्पन्न हुआ ।
४) यापनीय संघ
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कल्लाणे वरणयरे सत्तसय पंच उत्तरे जाये ।
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जावणिय संघ भावो सिरी कलसादो हु सेवडदो ||२९|| दर्शनसार यापनीयास्तु बेसरा इवो भयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पंच चाचयन्ति स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं केवलि जिनानां कवलाहार, पर शासने सग्रन्थानां मोक्षंच कथयन्ति ।
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