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भगवान् महावीर
चुप नहीं हो गये । वे जानते थे कि मनुष्य-प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि सेवा का उचित पुरस्कार पाये बिना वह सन्तुष्ट नहीं होती । प्रत्येक वर्ण पर समाज की उचित सेवा का भार तो रख दिया, पर जहाँ तक इसका यथेष्ट पुरस्कार इन वणों को समाज की ओर से न मिल जाय वहाँ तक यह विधान कभी सफलता-पूर्वक नहीं चल सकता। इसलिए उन्होंने चारों वर्षों का पुरुस्कार भी निश्चित कर दिया। उन्होंने चारों वर्णो को चार प्रकार की समाजिक विभूतियाँ प्रदान की। इन विभूतियों का उन्होंने इस प्रकार विभाग किया कि जिससे प्रत्येक वर्ण अपने अपने धर्म का पालन करता जाय । कोई वर्ण अपने धर्म को त्याग कर दूसरे धर्म में हस्तक्षेप न करे ।
प्रत्येक वर्ण को केवल एक ही विभूति दी जाती थी। ब्राह्मणों को केवल मान, क्षत्रियों के केवल ऐश्वर्य, वैश्यों को केवल विलास और शूद्रों को केवल नैश्चिन्त्य दिया जाता था। ब्राह्मण के बराबर मान, क्षत्रिय के बराबर ऐश्वर्य, वैश्य के बराबर विलास और शूद्र के बराबर नैश्चिन्त्य समाज में किसी को न मिलता था । ये विभाग भी मनो-विज्ञान के पूर्ण अध्ययन के साथ किये गये थे । प्रत्येक मनोविज्ञान-वेत्ता से यह बात छिपी नहीं है कि विद्या के द्वारा जात्युपकार करने वाले का मानप्रिय होना, बल द्वारा जाति सेवा करने वाले का ऐश्वर्या-प्रिय होना, व्यवसाय द्वारा जात्युपकार करने वाले का विलास-प्रिय होना और सेवा द्वारा जाति सेवा करने वाले का नैश्चिन्त्य-प्रिय होना स्वाभाविक है । और इसी कारण उनकी मनोवृत्तियों के अनुकूल ही उन्हें विभूतियां दी गई। मान-प्रधान ब्राह्मणों के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com