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भगवती आराधना
काकन्दी नगरी में चण्डवेगने अश्वघोष मुनिका सर्वांग छेद डाला ।। १५४५ ॥ विद्युच्चर मुनिने डाँस मच्छरोंकी घोर परीषह सहन की ।। १५४६ ||
हस्तिनापुर के गुरुदत्त मुनिके सिरपर द्रोणिमत पर्वतपर आग जलाई गई । चिलातपुत्र मुनिके शरीरको चीटियोंने खा डाला || १५४८ ॥
us मुनिको यमुनावक्रने तीक्ष्ण बाणोंसे छेद डाला ।। १५४९।।
२२
कुम्भकारकट नगरमें अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनि यन्त्रमें पेले गये || १५५० ॥ चाणक्य मुनि कण्डों की आग में जलाये गये ॥१५५१ ॥
कुणाला नगरी में वृषभसेन मुनि वसतिका में जलाकर मारे गये इस प्रकारके उदाहरणोंके द्वारा निर्यापक आचार्यं क्षपकको करते हैं ।
धर्मध्यानका वर्णन - गा० १७०३ में धर्मध्यानके चार भेद कहे है । इसकी टीकामें चारोंके स्वरूपका वर्णन करते हुए टीकाकारने आज्ञाविचय धर्मध्यानका स्वरूप कहकर सर्वार्थसिद्धिमें ( ९।३६ ) में कहे स्वरूपको 'अन्ये तु वदन्ति' कहकर लिखा है । इसी तरह धर्मध्यानके आलम्बनरूपसे बारह अनुप्रेक्षाओंके कथन के अन्तर्गत संसार अनुप्रेक्षाके कथनमें पंचपरावर्तनका कथन है । गा० १७६७ की टीका में 'अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवं वदन्ति' लिखकर सर्वार्थसिद्धि ( २1१० ) में प्रतिपादित भवपरिवर्तनका स्वरूप कहा है । इस तरह टीकाकार सर्वार्थसिद्धिकारका उल्लेख 'अन्ये' शब्दसे करते हैं ।
। । १५५२ ॥
कष्ट - विपत्ति के समय दृढ़
तथा गाथा १८२८ की टीका में सातावेदनीय, शुभनाम, शुभगोत्र और शुभ आयुके साथ मोहनीय कर्मके भेद सम्यक्त्व, रति, हास्य, और पुरुषवेदको पुण्य प्रकृतियोंमें गिनाया है । तत्त्वार्थसूत्रके आठवें अध्यायके अन्त में श्वेताम्बरीय सूत्र पाठमें ऐसा ही कथन है । पं० आशाधर जी ने भी अपनी टीकामें विजयोदया का ही अनुसरण किया है। उन्होंने भी इसपर कोई आपत्ति नहीं की है ।
शुक्लध्यानका कथन - धर्मध्यानके आलम्बनरूपसे बारह अनुप्रेक्षाओंका कथन करनेके पश्चात् गाथा १८७१ से शुक्लध्यानके चार भेदोंका कथन है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट आराधनाके पालक केवल ज्ञानी होकर लोकके शिखरपर विराजमान होते हैं |१९२३ ॥ मध्यम आराधनाके पालक शरीर त्यागकर अनुत्तरवासी देव होते हैं ॥१९२७॥ तेजोलेश्यासे युक्त जो क्षपक जघन्य आराधना करते हैं वे भी सौधर्मादि स्वर्गो में देव होते हैं ।।१९३४।। किन्तु जो आराधनासे गिरकर आर्त रौद्रध्यानी होते हैं वे सुगति प्राप्त नहीं करते ।
यहाँ ग्रंथकारने प्रसंगवश अवसन्न आदि कुमुनियोंका स्वरूप कहा है। टीकाकार ने गा० १९४४ की टीका में इन कुमुनियोंका स्वरूप स्पष्ट किया है ।
अवसन्न—जो उपकरण, वसतिका और संस्तरकी प्रतिलेखना में, स्वाध्याय में, विहारभूमिके शोधनमें, गोचरीकी शुद्धतामें, ईर्यासमिति आदिमें, स्वाध्यायके कालका ध्यान रखनेमें तत्पर नहीं रहता, छह आवश्यकोंमें आलस्य करता है, उसे अवसन्न कहते हैं ।
पार्श्वस्थ – जो उत्पादन और एषणा दोषसे दूषित भोजन करता है, नित्य एक ही वसतिकामें रहता है, एक ही संस्तरपर सोता है, एक ही क्षेत्रमें रहता है, गृहस्थोंके घरके भीतर बैठता है, रात में मनमाना सोता है, वह पार्श्वस्थ है ।
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