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प्रस्तावना
२१
गाथा ११९३ में प्रतिष्ठापन समितिका स्वरूप वही कहा है जो अन्य दिगम्बर ग्रन्थोंमें उत्सर्ग समिति के नाम से कहा है । केवल नाममें भेद है ।
गाथा १२०० में अहिंसा व्रतकी भावना कही है । त०सू० ७१४ में वाग्गुप्ति है और यहाँ एषणासमिति है इतना अन्तर है । सत्यव्रतकी भावना त०सू० के अनुरूप ही हैं । किन्तु तृतीय व्रतकी भावना भिन्न हैं । दोनोंमें किञ्चित् भी समानता नहीं है । निदानका निषेध करते हुए गा० १२१८ में पुरुष आदि होऊँ' ऐसा भी निदान नहीं करता अतः मुनिको केवल यही भावना करना चाहिये कि समाधिपूर्वक मरण हो आदि ।
कहा है कि मोक्षका इच्छुक मुनि 'मैं मरकर क्योंकि यह पुरुष आदि पर्याय भी भवरूप ही हैं । मेरे दुःखोंका नाश हो, कर्मोंका क्षय हो,
क्षपकको सम्बोधन करते हुए इन्द्रिय आदिकी आसक्ति में नष्ट होनेवालोंके उदाहरणोंकी एक लम्बी तालिका इस ग्रन्थ में दी गई है । यथा - घ्राणेन्द्रियकी आसक्ति वश सरयू नदीमें अयोध्यापति गन्धमित्र विषपुष्प सूंघ कर मरा ।। १३४९||
पाटलिपुत्र में गन्धर्वदत्ता वेश्या पांचाल नामक गायकका गान सुनकर मूच्छित हो गई ।। १३५० ।।
कंपिलाका राजा भीम मनुष्य के मांसका प्रेमी होनेसे मारा गया | १३५१ ॥
सुवेग नामक चोर स्त्रीके रूपमें आसक्त होनेसे मरा ॥१३५२ ||
नासिक नगर में ग्वालेपर आसक्त राष्ट्रकूटकी भार्याने अपने पुत्रको मार दिया। फिर उसकी पुत्रीने अपनी माँको मार दिया || १३५३॥
रोसे द्वीपायनने द्वारिका नगरीको जला दिया ॥ १३६८||
मानके कारण सगर के साठ हजार पुत्र मृत्युको प्राप्त हुए ।। १३७५ ।।
माया दोषसे रुष्ट कुम्भकारने भरतगाँव के धान्यको सात वर्षतक जलाया || १३८२ ।। कार्तवीर्यंने लोभवश परशुरामकी गायें चुराई । वह परशुरामके द्वारा सुकुटुम्ब मारा
गया || १३८८||
अवन्ति सुकुमालको तीन रात तक शृगालीने पूर्ववैरवश खाया ॥२५३४ ॥ पुद्गलगिरिपर सिद्धार्थके पुत्र सुकौशलमुनिको व्याघ्रीने खाया ॥ १५३५ ।। गजकुमार मुनिको पृथ्वीपर लिटाकर उसमें कीलें ठोकी गईं ॥ १३३६॥ सनतकुमारने सौ वर्ष तक अनेक रोग सहे || १५३७ ॥
णिकापुत्र मुनि गंगा में नावके डूब जानेपर मृत्युको प्राप्त हुए || १५३८ || भद्रबाहु घोर अवमौदर्य के द्वारा उत्तमस्थानको प्राप्त हुए || १५३९|| कौशाम्बी नगरी में ललितघट आदि मुनि नदीके प्रवाह में बह गये || १५४६ ||
चम्पा नगरीमें गंगा के तटपर घोर प्याससे पीड़ित धर्मघोष मुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए ।। १५४१ ॥
पूर्वजन्मके शत्रु द्वारा पीड़ित होकर श्रीदत्तमुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए । उष्णपरीषहको सहनकर वृषभसेन मुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए । रोहेडय (रोहतक) नगरमें क्रौंच राजाने अग्नि राजाके पुत्र को शक्तिसे मारा। वह उत्तमार्थको प्राप्त हुआ || १५४४ ॥
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