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मुंह फाड़-फाड़ कर खिलाये जाते हैं तथा दूसरे दूसरे नारकीय गृद्धादि मांस भक्षी पशु पक्षियों का रूप धारण कर इसके शरीर को नोचते और नाना प्रकार के दुःख देते हैं । अतएव मांसभक्षण को प्रतिनिध, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान सर्वथा त्याग देना योग्य है।
३. मधु दोष – मधु अर्थात् शहद की मक्खियाँ फूलों का रस चूस चूस कर लातीं उसे उगल कर छते में एकत्र करत और वहीं रहती है, उसी में सन्मूर्छन अण्डे उत्पन्न होते हैं। भील, गौंड आदि निर्दयी नीच जाति के मनुष्य उन छत्तों को तोड़ मधुमक्खियों को नष्ट कर उन ग्रण्डों-बच्चों को बची हुई मक्खियों सहित निचोड़ इस मधु को तैयार करते हैं। यथार्थ यह स जीवों के कलेवर (मांस) का पुज अथवा सत् है । इसमें समय-समय श्रसंख्याते स जीवों की उत्पत्ति होती रहती है । अन्य मतों में भी इसके भक्षण करने का निषेध किया गया है। मधु भक्षण के पाप से नीच गति का बंध और नाना प्रकार के दुखों की प्राप्ति होती है । अतएव उसे सर्वथा त्याग देना योग्य है ।
जिस प्रकार ये तीन मकार अभक्ष्य एवं हिंसामय होने से त्यागने योग्य हैं उसी प्रकार मक्खन भी है। यह महावित मद का उत्पन्न करने वाला और घृणा रूप हैं। तैयार होने पर यद्यपि इसमें अन्तर्मुहुर्त के पीछे त्रस जीवों की उत्पत्ति होना शास्त्रों में कहा है, तथापि विकृत होने के कारण आचार्यों ने तीन मकार के समान इसे भी अभक्ष्य और सर्वथा त्यागने योग्य कहा है ।
४. पंख उदुम्बरकल दोष—जो वृक्ष के काठ को फोड़कर फलें, वे उदुम्बर फल कहलाते हैं । यथा : - ( १ ) गूलर या ऊमर (२) वट या बड़, (३) प्लक्ष या पाकर, (४) कठूमर या अंजीर, (५) पिप्पल या पीपल । इन फलों में हिलते, चलते, उड़ते, सैकड़ों जीव श्रंखों से दिखाई देते हैं। इनका भक्षण निषिद्ध, हिंसा का कारण और श्रात्म परिणाम को मलिन करने बाला है । जिस प्रकार मांसभक्षी के दया नहीं, मदिरापायी के पवित्रता नहीं, उसी प्रकार पंच उदुम्बर फल के खाने वाले के अहिंसा धर्म नहीं होता, अतएव इनका भक्षण त्याग देना योग्य हैं। इनके सिवाय जिन वृक्षों में दूध निकलता हो ऐसे क्षीरवृक्षों के फलों का श्रथवा जिनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती हो, ऐसे सभी फूलों का सुखी' गोली आदि सभी दशाओं में भक्षण सर्वथा तजना योग्य है । इसी प्रकार सड़ा-धुना अनाज भी अभक्ष्य है, क्योंकि इसमें भी सजीव होने से मांस भक्षण का दोष आता है
जीवों की हिंसा होती है, इसी कारण शास्त्रों में रात्रि को दीपक के प्रकाश में भोजन किया जाय
५. रात्रि भोजन दोष - दिन को भोजन करने की अपेक्षा रात्रि को भोजन करने में राग-भाव की उत्कटता, हिंसा पौर निर्दयता विशेष होती है। जिस प्रकार रात्रि को भोजन बनाने में असंख्याते रात्रि भोजियों को निशाचर की उपमा दी गई है। यहाँ कोई शंका करे, कि तो क्या दोष है? उसका समाधान — दीपक के प्रकाश के कारण बहुत से पतंगादि सूक्ष्म तथा बड़े-बड़े कीड़े उड़कर पाते और भोजन में गिरते हैं। रात्रि भोजन में थरोक ( अनिवारित) महान् हिंसा होती है। रात्रि में अच्छी तरह न दिखने से हिंसा (पाप) के सिवाय शारीरिक नीरोगता में बहुत हानि होती है। मक्खी खा जाने से वमन हो जाती है, कीड़ा खा जाने से पेशाब में जलन होती, केश भक्षण से स्वर का नाश होता, ज्या खा जाने से जलोदर रोग होता, मकड़ी भक्षण से कोढ़ हो जाता यहाँ तक कि विषमरा से भक्षण के आदमी मर तक जाता है।
धर्म संग्रह श्रावकाचार में रात्रि भोजन प्रकरण में स्पष्ट कहा है कि रात्रि में जब देव कर्म, स्नान, दान, होम कर्म नहीं किये जाते (वर्जित) हैं तो फिर भोजन करना कैसे सम्भव हो सकता है ? कदापि नहीं वसुनन्दि श्रावकाचार में कहा है कि रात्रि भोजी किसी भी प्रतिमा का धारक नहीं हो सकता। इसी कारण यह रात्रि भोजन उत्तम जाति, उत्तम धर्म, उत्तम कर्म को दूषित करने वाला, नीच गति को ले जाने वाला जान सर्वथा त्यागने योग्य है ।
६. वेव वन्दना - बीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी श्री महंत देव के साक्षात् वा प्रतिबिम्ब रूप में, सच्चे चित्त से अपना पूर्ण पुण्योदय समझ पुलकित, श्रानन्दित होते हुये दर्शन करने गुणों के चितवन करने तथा उनको श्रादर्श मान अपने स्वभाव, विभावों का चितवन करने से सम्यक्त्व की निर्मलता, धर्म को श्रद्धा चित्त की शुद्धता धर्म में प्रीति बढ़ती है । इस देव वंदना का अन्तिम
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