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मूलगुण धारण, सातिचार होता है, ये जान-बूझकर प्रतीचार नहीं लगाते, किन्तु बचाने का प्रयत्न करते हैं, तो भी मप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से विवश अतीचार लगते हैं।
पाक्षिक श्रावक आपत्ति आने पर भी पंच परमेष्ठी के सिवाय चक्रश्वरी, क्षेत्रपाल, पद्मावती प्रादि किसी देवी-देवता की पूजा वंदना नहीं करता। रत्मकरंड श्रावकाचार में श्री समंतभद्रस्वामी ने भी सम्यग्यदृष्टि को इनको पूजन-वंदना का स्पष्ट रूप से निषेध किया है।
(नोट) जिन धर्म के भक्त देवों को साधारण महिर जामों जान योचित प्रदर सत्कार पूर्वक यज्ञ (प्रतिष्ठा) आदि कार्यों में उनके योग्य कार्य संपादन करने के लिये सौंपने से सम्यक्त्व' में कोई हानि-बाधा नहीं पा सकती। अब यहां अष्ट मूलगुण और सप्त व्यसन का स्पष्ट वर्णन किया जाता है।
अष्ट मूलगुण कई ग्रन्थों में बड़, पीपल, गूलर (कमर), कठूमर पाकर इन पाँच उदम्बर फलों के (जिनमें प्रत्यक्ष त्रस जीव दिखाई, देते हैं) तथा मद्य, मांस, मधु तीन मकारी के (जो अस जीवों के कलेवर के पिंड हैं) त्याग करने को अष्ट मूलगुण कहा है।
धारण तथा तीन मकार के त्याग को प्रष्ट मूलगुण कहा है। महापुराण में मध की जगह सप्तव्यसन के मूल जुना खेलने की गणना की है। सागारधर्मामृतादि कई ग्रन्थों में मद्य (शराब) मौस, मध. (शहद) इन तीन मकार के त्याग के ३, उपर्युक्त पंच उदम्बर फलों के त्याग का १, रात्रि भोजन के त्याग का नियम वंदना करने का १, जीव दया पालने का १, जल' छानकर पीने का १, इस प्रकार अष्ट मूलगुण कहे हैं। इन सब कहे हये प्रष्ट मलगणों पर जब सामान्य रूप से विचार किया जाता है तो सभी का मत अभक्ष्य, अन्याय मौर नियमन FIIT कराने और धम म लगाने का एक सराखा ज्ञात हाता है। अतएव सबस पाचकह हए त्रिकाल बंदना जी प्रष्ट मलगुणों में इन अभिप्रायों का भली भांति सिद्ध होने के कारण यहां उन्हीं के अनुसार वर्णन किया जाता है।
१. मद्यदोष-मद्य बनाने के लिये, दास्त्र, छुहारे आदि पदार्थ कई दिनों तक सड़ाये जाते हैं, पीछे यन्त्र द्वारा उनसे शराब उतारी जाती है, यह महादुर्गन्धित होती है, इसके बनने में असंख्याते-अनन्त, त्रस-स्थावर जीवों को हिसा होती है। यह मद्य मन को मोहित करती है, जिससे धर्म-कर्म की सुध-बुध नही रहता तथा पच पापी में निश्शक प्रबत्ति होतो कारण मद्य को पंच पाप की जननी (माता) कहते हैं। मद्य पीने से मूर्छा, कम्पन, परिश्रम, पसीना, विपरीतपना, नेत्रों के लाल हो जाने प्रादि दोषों के सिवाय मानसिक एवं शारीरिक शक्ति नष्ट हो जाता है। शराबी धनहान घोर अनि पात्र हो जाता है, शराबी का शरीर प्रतिदिन अशक्त होता जाता है, अनेक राग आ घरते हैं, आय क्षीण होकर के कष्ट भोगता हआ मरता है। प्रत्यक्ष ही देखो! मद्यपी उन्मत्त होकर माता, पुत्री, बहिन आदि की सूधभलकर द्वमा जदवा-सदवा बर्ताव करता है। इस प्रकार मद्यपी स्व-पर को दु:खदाया हाता हुमा, जितन कुछ संसार में साल है, उससे कोई भी व्यसन बच नहीं रहता। एसी दशा में धर्म की शुद्धि तथा उसका सेवन होना सर्वथा असम्भव है। इस लोक में निद्य तथा द:खी रहता है और मरने पर नरक को प्राप्त होकर अति तात्र कष्ट भागता है। वहां उसे संडसियों में मह फाड-फाड़ कर तांबा-शीशा पिलाया जाता है। इस प्रकार मद्य-पान को लोक-परलोक बिगाड़ने वाला जानकर हर भी त्याग देना योग्य है। प्रगट रहे कि चरस, चंडू, अफीम, गांजा, तमाखू, कोकेन मादि नशीली चीज खाना पीना भी मदिरापान के समान धर्म-कर्म नष्ट करने वाली हैं, अतएव मद्य त्यागियों को इनका त्यागना भी योग्य है।
२. मांस दोष-मांस यह त्रस जीवों के वध से उत्पन्न होता है । इसके स्पर्श, प्राकृति, नाम और दुर्गन्ध से ही चित्त में महाग्लानि उत्पन्न होती है । यह जीवों के मूत्र, विष्टा एवं सप्त धातु-उपधातु रूप महा अपवित्र पदार्थों का समूह है। मांस का पिड चाहे सूखा हुआ हो, चाहे पका हुआ हो, उसमें हर हालत में त्रस जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है। मांस भक्षण के लोलपी बेचारे, निरपराध, दीन, मूक पशुओं का वध करते हैं। मांस भक्षियों का स्वभाव निर्दय, कठोर सर्वथा धर्म धारण के योग्य नहीं रहता है। मांस भक्षण के साथ-साथ मदिरापानावि व्यसन भी लगते हैं। मांस भक्षी इस लोक में सामाजिक एवं धर्मपद्धति में निंद्य गिना जाता है, मरने पर नरक के महान दासह दःस्व भोगता है। वहां लोहे के गर्म गोले, संडसियों से