Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु : एक पुनर्विचार जमाली, भयाली, किंकम, पल्लतेतीय और फालअम्बपुत्र' । यदि हम वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा को देखते हैं तो उसमें उपर्युक्त दस अध्यायों में केवल दो नाम सुदर्शन और किंकम उपलब्ध हैं।
समवायांग में अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु का विवरण देते हुए कहा गया है कि इसमें अन्तकृत जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इह लोक और परलोक की ऋद्धि विशेष, भोग और उनका परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतज्ञान का ध्यान, तप तथा क्षमा आदि बहुविध प्रतिमाओं, सत्रह प्रकार के संयम, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, समिति, गुप्ति, अप्रमाद, योग, स्वाध्याय और ध्यान सम्बन्धी विवरण हैं। आगे इसमें बताया गया है कि इसमें उत्तम, संयम को प्राप्त करने तथा परिग्रहों के जोतने पर चार कर्मों के क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार से होती है इसका उल्लेख है साथ ही उन मुनियों की श्रमण पर्याय, प्रायोपगमन, अनशन, तम और रजप्रवाह से युक्त होकर मोक्षसख को प्राप्त करने सम्बन्धी उल्लेख हैं । समवायांग के अनुसार इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन और सात वर्ग बतलाये गये हैं। जबकि उपलब्ध अन्तकृद्दशा में आठ वर्ग हैं अतः समवायांग में वर्तमान अन्तकृद्दशा को अपेक्षा एक वर्ग कम बताया गया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार ने स्थानांग की मान्यता और उसके सामने उपलब्ध ग्रन्थ में एक समन्वय बैठाने का प्रयास किया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार के सामने स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा लुप्त हो चुकी थी और मात्र उसमें १० अध्ययन होने को स्मृति ही शेष थी तथा उसके स्थान पर वर्तमान उपलब्ध अन्तकृद्दशा के कम से कम सात वर्गों का निर्माण हो चुका था।
नन्दीसूत्रकार अन्तकृद्दशा के सम्बन्ध में जो विवरण प्रस्तुत करता है वह बहुत कुछ तो समवायांग के समान ही है किन्तु उसमें स्पष्ट रूप से इसके आठ वर्ग का उल्लेख प्राप्त है। समवायांगकार जहाँ अन्तकृद्दशा की दस समुद्देशन कालों की चर्चा करता है वहाँ नन्दीसूत्रकार उसके आठ उद्देशन कालों की चर्चा करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना समवायांग के काल तक बहुत कुछ हो चुकी थी और वह अन्तिम रूप से नन्दीसूत्र को रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में आ चुका था। श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध तीनों विवरणों से हमें यह ज्ञात होता है कि स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा प्रथम संस्करण को विषयवस्तु किस प्रकार से उससे अलग कर दी गई और नन्दीसूत्र के रचना काल तक उसके स्थान पर नवीन संस्करण किस प्रकार अस्तित्व में आ गया।
यदि हम दिगम्बर साहित्य को दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करें तो हमें सर्व प्रथम तत्त्वार्थवार्तिक में अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु से सम्बन्धित विवरण उपलब्ध होता है। उसमें निम्न दस अध्ययनों की सूचना प्राप्त होती है-नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कम्बल और पातालम्बष्ठपुत्र । यदि हम स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा के दस अध्ययनों से इनकी तुलना करते हैं तो इसके यमलिक और वलिक ऐसे दो नाम हैं, जो स्थानांग उल्लेख से भिन्न है। वहाँ इनके स्थान पर जमाली, मयाली (भगाली) ऐसे दो अध्ययनों का उल्लेख है । पुनः चिल्वक
१. स्थानांग, स्थान १०।
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