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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 उल्लिखित किया है। इससे प्रतीत होता है कि कतिपय प्राचीन आचार्यों ने मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मन:पर्ययज्ञान के बाद अवधिज्ञान को रखा होगा।
धवला टीकाकार ने अवधि का एक अर्थ आत्मा भी किया है। उपाध्याय यशोविजय ने पूर्वाचार्यों के भावों को ध्यान में रखते हुए अवधि का लक्षण इस प्रकार से किया है कि सकल रूपी द्रव्यों का जानने वाला और सिर्फ आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अवधि ज्ञान कहलाता है।" अवधिज्ञान की परिभाषा :
1. षट्खण्डागम के अनुसार - नीचे के विषय को धारण करने वाला होने से अवधि कहलाता है अथवा नीचे गौरव धर्मवाला होने से, पुद्गल की अवाग् संज्ञा है, उसे जो धारण करता है अर्थात् जानता है, वह अवधि है और अवधि रूप ही ज्ञान अवधिज्ञान है अथवा अवधि का अर्थ मर्यादा है, अवधि के साथ विद्यमान ज्ञान अवधिज्ञान है। यह अवधिज्ञान मूर्त पदार्थ को ही जानता है क्योंकि रूपिष्वधे:12 ऐसा सूत्र वचन है।13 षटखण्डागम पुस्तक 6 में भी यही परिभाषा देते हुए वहाँ इतना विशेष बताया है कि अवधि नाम मर्यादा का है, इसलिए द्रव्य, जीव, काल और भाव की अपेक्षा विषय संबन्धी मर्यादा के ज्ञान को अवधि कहते हैं। 4 अवधिज्ञान के इस स्वरूप की पुष्टि कषायपाहुड,5 तत्त्वार्थवार्तिक,16 षटखण्डागम,17 से होती है। कर्मप्रकृति में अभयचन्द्र ने भी लगभग अवधिज्ञान का ऐसा ही स्वरूप प्रतिपादित किया है। पंचसंग्रह में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है, लेकिन वहाँ मर्यादा के स्थान पर सीमा शब्द का प्रयोग किया गया है। गोम्मटसार में पंचसंग्रह के समान ही परिभाषा दी गई है।20
२. पूज्यपाद के अनुसार- अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से या परिमित विषय वाला होने से अवधि कहलाता है।
३. जिनभद्रगणि के अनुसार- जो अवधान से जानता है, वह अवधिज्ञान है। अंगुल के असंख्येय भाग क्षेत्र को जानने वाला अवधि ज्ञानी आवलिका के असंख्येय भाग तक जानता है। इस प्रकार जो परस्पर नियमित द्रव्य,क्षेत्र,काल आदि को जानता है, वह अवधिज्ञान है।