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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
अर्थात् लंघन करने से दोषों का क्षय होने पर तथा जाठराग्नि के प्रदीप्त होने पर रोगी को ज्वरहीनता, लघुता एवं क्षुधा उत्पन्न होती है। जहाँ उपवास से निश्चय ही आध्यात्मिक रूप से पुण्यफल की प्राप्ति होती है, साथ ही शारीरिक व मानसिक स्वस्थता भी प्राप्त होती है। उपवास के द्वारा रोगोपचार में महर्षि चरक का कथन है
कुर्याच्छोणितरोगेषु रक्तपित्तहरी क्रियाम्। विरेकमुपवासं च स्रावणं शोणितस्य च॥
(चरक संहिता सूत्रस्थान-२४/१८) अर्थात् दूषित रक्त से समुत्पन्न विकारों में रक्तपित्तनाशक क्रिया (उपचार) करना चाहिए। साथ ही विरेचन,उपवास और रक्तविस्त्रावण करना चाहिए।
___ वीर सेवा मंदिर के ग्रन्थालय में हस्तलिखित ग्रन्थों में निम्नांकित आठ ग्रन्थ आयुर्वेद से संबन्धित हैं :1. बाल चिकित्सा के 3 ग्रन्थ जो एक एक पन्ने के हैं। 2. कवि तरंग (काव्यात्मक) है। 3. अजीर्ण मंजरी 4. रस क्रिया (सोने एवं चांदी के शोधने की नस्खे बताये गये हैं।) 5. कालक परीक्षा। 6. मूत्र परीक्षा। 7. नेत्ररोग निदान एवं 8 योग चिंतामणि।
इस संपादकीय को लिखने में, आचार्य राजकुमार जैन, आयुर्वेदाचार्य, जिनके दो शोधालेख प्रस्तुत विशेषांक में समाहित किये गये हैं, की पुस्तक 'जैनधर्म और आयुर्वेद' की सहायता ली है। श्री राजकुमार जी ने एक महत्त्वपूर्ण पत्र भी लिखा जिसे “पाठकों के पत्र" के अंतर्गत दिया जा रहा है। आपने अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से विशेषांक के इस स्वरूप को संवारने में सहयोग किया है। सिंघई जयकुमार जैन, सतना ने भी एक महत्त्वपूर्ण शोधालेख “कैवल्य वृक्षों का औषधीय महत्त्व" भेजकर इसे गरिमा प्रदान की। उक्त दोनों विद्वान लेखकों को साधुवाद।
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