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अनेकान्त 68/4 अक्टू-दिसम्बर, 2015
मूत्तचिकित्सा, अतिसार विचार, गहणीसेयाहियार (114), पाण्डुरोगाधिकार (117) आमरोगाधिकार (121), शूलाधिकार ( 125 ), विसूचिकाधिकार, गुम्माधिकार, पवणासाधिकार ( 137 ), तृष्णाधिकार, धरोधाधिकार, हरिस्साधिकार, हिक्काधिकार (161) कासाधिकार (167), कुष्ठाधिकार (176-199) शिररोगाधिकार, सवणहियार (106-214), श्वासरोगाधिकार (2315-224) भगंदराधिकार (23-229), नयनसेगाधिकार (230-236), घाणरोगाधिकार (237-240), मुखरोगाधिकार (241-243) दंतरोगाधिकार (244-249) गलरोगाधिकार ( 250-253), भूताधिकार (254-242), बालरोगाधिकार (273-283), गखाधिकार (284-325) एवं रसाधिकार (326-333) जैसे अधिकारों में रोग, रोगकारण, उपचार आदि को महत्व दिया गया है।
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प्रथम गाथा में उन्माद, मणिवात, मूर्च्छावात एवं शीर्ष वेदना बहरेपन में 'कायफल' से शान्ति मिलती है।
जोणिपाहुड में प्रतिपादित रोगोपचार
वातरोग - यह रोग कई स्थानों में होता है- जैसे कोष्ठगत, आमाशयगत, पक्वाशयगत, स्नायु, संधिगत, अस्थिगत, रक्तगत, शुक्रगन, गर्भागत, शिरोगत आदि वात (वायु) रोग है। इसके नाश हेतु कहा
चउजायं चउचंदणमुरुमं सीठंट्ठि-गुहुमका सरीरं ।
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तयं ते जरिजड-गुडं, सव्वं चोच्चं किमिडजाइफलं ॥८॥ चारों जात, चारो चंदन, उड़द, सोंठ, गुहुमक असती (अलसी) एवं जायफल को समभाग में पुराने गुड़ के साथ लेने से वातरोग (वायुविकार) शांत होता है।
यहाँ यह भी कथन किया है कि इन्हें समभाग द्रव्य से दुगुने तेल के साथ परिपालकर उसे लगाने से सभी वातरोग नष्ट हो जाता है।
इय समभाए दव्वे, गुरुरण्हाण खिवेह कच्छम्मि । कच्छसम एक्कतिल्लं, वायाइ - सव्व - दोसहरं ॥ ९ ॥ ज्वररोगोपचार- ज्वर (बुखार) वातिक, पैत्तिक, कफज, सन्निषातज आदि कई प्रकार का होता है। ज्वर की पूर्व अवस्था में मूंग की दाल का पानी, पुराने शालि (समा) के चावल, षष्टिक चावल (षाठी चावल ) या दलिए की खिचड़ी देने से ज्वर लाभ होता है।