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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 _ 'होइ जरो मंद-तिव्वो य। (14) यदि ज्वर मंद या तीव्र हो, आहार में अरुचि, आहार लेते हुए वमन, आंख भी न खुले ऐसे समय में कुलमास का पानी देना लाभदायक होता है। कुलमासा अद्धमं चं तह सायं। (15)
शिशु और उसके प्रति सावधानी- जन्मजात बालक से लेकर दुग्धपान की अवस्था तक शिशु रहता है। उस अवस्था पर 'कायफल या पिप्पली को माँ के दूध में घिसकर देना उचित होता है। उसे स्तनपान देना ही उचित रहता है, धाई आदि का दुग्ध ठीक नहीं होता है। माँ का दूध औषध ही है।
धणं बालाण दिज्जइ, तं ण धाइएइसु तस्सेव।
भेसह गुणं च जायइ, इयरे कुब्वंतु सयमेव॥ (२९) जोणिपाहुड में अनेक औषधियों के कारणोपचार पूर्वक आरोग्य लाभ की कामना की है।
धम्मत्थ-काम-मोक्खं, जम्हा मणुयाण होइ आरोग्य।
तम्हा तस्स उवायं, साहिज्जतं णिसामेहि ॥४३॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जहां मनुष्यों के लिए कहे गए वहाँ उसके आरोग्य के उपाय भी दर्शाए जाते हैं। यह देह जयसुन्दरी माला रोगोपचार के लिए लिखी जा रही है।
अट्ठसयं वाहीणं, अववायाणं च पंचय-सयाणि।
अणुदियह मणुयाणं, वसंति आसण्ण-मच्चू ॥४५॥ ___ इस लोक में मनुष्यों के लिए आठ सौ व्याधियाँ सदैव रहती हैं और इसलिए वे मृत्यु के निकट रहते हैं। फिर भी 'जीवंति कीस मणुआ' (४६) मनुष्य कैसे जीवित रहते हैं या उनका जीवन कैसे बना रहता या बना रहेगा। एक-एक रोग की उत्पत्ति के अनेक कारण हैं उसमें वात, पित्त और कफ है।
सिरहंग-पिट्ठिभंगं, फुडणं कडि-जाणु-जंध-संधीसु।
खरफासं च सरीरं, सूलं कण्णच्छि-वच्छेसु॥५३॥ प्रायः शरीर में उत्पन्न हाने वाले रोगों के विविध प्रकार हैं उन रोगों के विषय में 53 से 60 कुल 7 गाथाएं दी हैं। जिनमें शिरोवेदना, पृष्टि-भंग, कटि, जानु (घुटने) जंघा आदि की संधियों में उत्पन्न पीड़ा, कर्ण, अक्षि एवं वच्छ (हृदय) रोग आदि भी हैं। कंडु, कुष्ट रोग के लिए