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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 है दोनों के तत्त्व विश्लेषण में कुछ नहीं।
जैन धर्मानुयायी प्रत्येक विवेकशील पुरुष प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना करता है, कामना करता है कि भगवान मेरी प्रवृत्तियाँ भावना कैसी रहे। मेरी भावना के रूप में विस्तार से और निम्नश्लोक के रूप में अति संक्षेप में हर एक जैनी इसे जानता है। आयुर्वेद और उसके पंडित लोग (वैद्य) इसी भावना के पोषक होते हैं। यह केवल शब्द भेद रखने वाले दोनों पक्षों, के नीचे लिखे दो पद्यों से सम्पुष्ट हो जाता है।
एक और उदाहरण से यह बात और पुष्ट हो जाती हैसत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषुजीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थभावे विपरीत वृत्तौ सदा ममात्मा विदधातुदेव॥ मैत्री कारूण्यमार्तेषु शक्ये प्रतिरूपेक्षणम्।। प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यबुद्धिश्चश्युर्विधा॥ (चरक)
सब प्राणियों से मैत्री भाव, गुणीजनों में आदरभाव और प्रमोद, दुःखीजनों के प्रति दयाभाव और अपने विरोधियों के प्रति माध्यस्थ भाव रखना चाहिये। आयुर्वेद भी यही कहता है। सर्व पुरुषों के प्रति मित्रता, रोग ग्रस्त जीवों के प्रति करुणाभाव (दु:ख दूर करने की भावना) साध्य रोग या रोगी के प्रति उत्साह अथवा रुचि और असाध्य रोगियों के प्रति उपेक्षाभाव वैद्य के होना चाहिये।
संक्षेप में संसार के समग्र दु:ख-सुख के मूल कारण की और आयुर्वेद सम्बन्धी महर्षि चरक की मान्यता के द्योतक तथा प्रसिद्ध आचार्य वाग्भट के सार्वदेशिक स्वास्थ्य के प्ररूपक उद्धरणों को लिखकर मैं अपना अभिप्रायः समाप्त करता हूँ।
समग्रं दःखमायतमविज्ञाने द्वयात्रयम्।
सुखं समग्रं विज्ञाने विमले च प्रतिष्ठितम्॥(चरक)
संसार के सभी प्रकार के मानसिक व शारीरिक रोगों का मूल स्रोत अज्ञान है। जबकि सभी प्रकार के सुखों का उद्गम मनुष्य का निर्मल ज्ञान या विवेक है। इन दुःखों को दूर करने और सुखों को प्राप्त करने हेतु व्यक्ति को विवेकशील होकर सदाचारी बनना अनिवार्य है। समूचे जैनाचार का उपसंहार आचार्य वाग्भट कितने सुन्दर शब्दों में करते हैं।