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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
का संरक्षण जिससे हो वही आयर्वेद है। वर्तमान आय के अन्त तक पर्ण स्वस्थता ही आरोग्य है। स्वस्थता के विरोधी रोग हैं। व्याधि रोग का पर्यायवाची शब्द है। शरीर में व्याधियाँ चार प्रकार की होती हैं -
1. वातज 2. पित्तज 3. कफज 4. संसर्गज।
वातोत्पादक पदार्थों का सेवन वातज व्याधियों का जनक है, पित्तज पदार्थों के सेवन से पित्तप्रधान व्याधियाँ होती हैं तथा कफोत्पादक वस्तुओं का सेवन कफज व्याधियों को उत्पन्न करता है। एक-दूसरे के संसर्ग से होने वाली व्याधियाँ संसर्गज कहलाती हैं। संसर्गज व्याधियों में शीतला, मोतीज्वर, राजयक्ष्मा (टी.वी.), उपदंश आदि को लिया जा सकता है। प्रकृति ने अनेक भोज्य पदार्थ उत्पन्न किये हैं जैसे- अन्न, विविध फल, विविध शाक, पत्र-पुष्पादि ये सब अपने-अपने समय पर सर्वत्र उत्पन्न होते रहते हैं। ये नानाविध खाद्य पदार्थ विभिन्न प्रकार की व्याधियों से मुक्त कराने की शक्ति से युक्त हैं इनमें अपूर्व शक्ति है, जिनके सेवन से ही विविध रोग शान्त हो सकते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी पदार्थ हैं जिनके सेवन से नानाविध रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिए विवेकियों ने- मनीषियों ने विवेक से काम लेने को कहा। जैसे बड़, पीपल. ऊमर. कठमर और पाकर ये पंच उदुम्बर फल कहलाते हैं। इनमें अनेक जीव है जो चलते-फिरते दिखाई देते हैं तो फिर इनके खाने से शरीर कैसे स्वस्थ रह सकता है। कुछ शाक आदि ऐसे हैं जिनमें चलते-फिरते जीव तो नहीं दिखाई देते हैं, किन्तु अनेक निगोदिया जीवो का पिण्ड स्वरूप ही है, जैसे आलू, शकरकन्दी आदि जमीकन्द। उनके भक्षण करने से भी बुद्धि में प्रमाद, भारीपन और मन्दता आ जाती है।
मद्य, मांस और मधु तो प्रत्यक्ष ही घृणास्पद, मदकारक व हिंसा जन्य है। बुद्धि को विपरीत व कुण्ठित करने वाले हैं तथा क्रूरता उत्पन्न करने वाले हैं। ये पदार्थ व मस्तिष्क में क्षोभ उत्पन्न करते हैं, हेयोपादेय के बोध से रहित करते हैं। ये पदार्थ स्वयं ही अभक्ष्य हैं इनको भक्षण करने वाला अन्य भी अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने में संकोच नहीं करता है। जैन चिकित्सा पद्धति में भी इनका प्रयोग निषिद्ध माना गया है। उग्रादित्याचार्य ने अपने कल्याणकारक ग्रन्थ में चिकित्सा करने में भी