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अनेकान्त 68/4 अक्टू- दिसम्बर, 2015
तत्त्वार्थराजवार्तिक (भखा अकलंकदेव कृत) के प्रतिक्षण जो आयु आदि
१. नित्य मरण
मरण के भेद
अनुसार मरण के दो प्रकार हैं
का ह्रास होता रहता है, वह नित्य मरण है।
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२. तद्भव मरण शरीर का समूल नाश हो जाना तद्भव मरण है। नित्यमरण तो निरंतर होता रहता है, उसका आत्मपरिणामों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। पर शरीरांत रूप जो तद्भव मरण है उसका कषायों एवं विषय वासनाओं की न्यूनाधिकता के अनुसार आत्म परिणामों पर अच्छा या बुरा प्रभाव अवश्य पड़ता है। इस तद्भव मरण को सुधारने और अच्छा बनाने के लिए सल्लेखना की जाती है।
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क्षेत्र,
भगवती आराधना के कर्ता आचार्य शिवार्य के शब्दों में "सल्लेखना के लिए वही तप या उसका वही क्रम अंगीकार करना चाहिए जो द्रव्य, काल और शरीर धातु के अनुकूल हो। क्योंकि सामान्यतः सल्लेखना का जो क्रम बतलाया गया है, वही क्रम रहे ऐसे एकान्त नियम में साधक को प्रतिबद्धता हो सकती है। अतः जिस प्रकार शरीर का क्रमशः सल्लेखना ( तनूकरण) हो, वही प्रकार अंगीकार करना उचित है। सल्लेखना से अनंत संसार के कारणभूत कषायों का आवेग उपशांत अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्म मरण का चक्र बहुत ही कम हो जाता है।
सल्लेखना में सहयोगियों की भूमिका का महत्त्व
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सल्लेखना के समय गुरु, आचार्य और संघ आदि के सहयोग की भूमिका बड़ा महत्त्व रखती है। अतः साधाक को भीतर के आवेग और कालुष्य को मिटाकर सल्लेखना धारक को उत्तम साधक धर्मात्माओं की सहायता लेनी चाहिए, क्योंकि साधर्मी तथा गुरु आदि की सहायता से अशुभ कर्म या अन्यान्य तत्व विघ्न उत्पन्न नहीं कर पाते। साधक को चाहिए कि व्रत के अतिचारों (दोषों) को साधर्मिकों अथवा आचार्य के सम्मुख प्रकट करके निःशल्य होकर प्रतिक्रमण, प्रायश्चित आदि विधियों से दोषों का शोधन करे। क्योंकि ज्ञात दोषों का प्रायश्चित और अज्ञात दोषों की आलोचना करने वाला निर्भार (निःशल्य) हो जाता है।
सल्लेखना धारक अपने जीवन में किए कराए और अनुमोदित (कृत, कारित और अनुमोदन से) समस्त हिंसादि पापों को निश्छल भाव से आलोचना (खेद प्रकाशन) करे तथा मृत्युपर्यंत महाव्रतों का अपने में पुनरारोपण करे।