Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 371
________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 सम्यक्त्वी सोचे यही, मृत्यु महोत्सव चंद् मान। मृत्यु बिन सुख न मिले, क्यों न महोत्सव जान॥ श्रावक को इस बात का विचार सदैव करना चाहिए कि मैं अपने मरण-समय अवश्य सल्लेखना धारण करूँगा, क्योंकि मरण समय प्रायः मनुष्यों के परिणाम बहुत संक्लेशपूर्ण हो जाते हैं तथा कुटुंबीजनों व धनादि से ममत्वभाव नहीं छूट पाता। जिसका ममत्वभाव छूट जाता है, उसी के सल्लेखना होती है। समाधिमरण वही प्राप्त कर सकता है, जो प्रारंभ से ही धर्म की आराधना में सावधान रहा है। कदापि ऐसा भी संभव है कि किसी ने यावज्जीवन धर्माराधना में चित्त न लगाया हो, किंतु अंतकाल में अपूर्व विवेक का बल प्राप्त कर समाधिमरण कर ले, किंतु यह काकतालीय न्यायवत् अत्यंत कठिन है। जैसे ताड़वृक्ष से अचानक फल टूटकर उड़ते हुए कौए के मुख में वह फल प्राप्त हो जाना कठिन है, वैसे ही संस्कारहीन जीवन में समाधिमरण पाना दुस्साध्य है। सामान्य नियम यही है कि - "चिरंतनाभ्यास निबंधानेरिता गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः" अर्थात् चिरकाल के अभ्यास से प्रेरित बुद्धि ही गुण अथवा दोषों में जाती है। इसलिए हर मनुष्य को अपना सम्पूर्ण जीवन धर्माराधना में लगाकर अंतिम सल्लेखना और समाधिमरण की भक्तिपूर्वक सदा भावना करनी चाहिए। शरीर त्याग के प्रकार - जैन शास्त्रों में शरीर का त्याग तीन तरह से बताया गया है - १. च्युत - स्वतः आयु पूर्ण होने पर शरीर छूटता है, वह च्युत कहलाता है। २. च्यावित – जो विष-भक्षण, शस्त्राघात, संक्लेश, अग्निदाह, जलप्रवेश आदि निमित्त कारणों से शरीर छोड़ा जाता है, वह च्यावित कहलाता है। ३. त्यक्त – जो रोगादि के हो जाने पर और उनकी असाधयता एवं मरणकाल में सल्लेखना या अनशनपूर्वक शरीर छोड़ा जाता है, वह त्यक्त कहलाता है। शरीर त्याग के इन तीन भेदों में तृतीय त्यफ्र-शरीरत्याग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसे ही समाधिमरण या वीरमरण कहते हैं। क्योंकि त्यफ्र अवस्था में आत्मा पूर्णतया जागृत एवं सावधान रहता है तथा उसे कोई संक्लेश पैदा नहीं होता।

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