Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 374
________________ अनेकान्त 68/4 अक्टू - दिसम्बर, 2015 अहिंसा का सम्पूर्णता से पालन करने के लिए जैनधर्म में, लोक प्रचलित किचित् भी हिंसक, मिथ्या एवं पाखण्ड युक्त अनेक मान्यताओं, मतों और सिद्धान्तों आदि को पूरी तरह नकारा गया है, चाहे इसके कारण उसे कितनी ही उपेक्षा, अपमान कठिनाईयों या विपत्तियों का सामना भले ही करना पड़ा हो, किन्तु जैनधर्म ने अहिंसा सिद्धान्त के परिपालन और प्रतिपादन की दृढ़ता में किचित् भी छूट नहीं दी। तब फिर सल्लेखना जैसी दुर्लभ और पवित्र साधना में आत्महत्या जैसे हिंसक, कायरतापूर्ण जघन्य कृत्य की मान्यता या भावना यहाँ कैसे निहित हो सकती है ? 86 जीवन का अन्त दोनों स्थितियों में है किन्तु सल्लेखना और आत्मघात दोनों में जमीन आसमान जैसा अन्तर है। आत्महत्या वह व्यक्ति करता है, जो परिस्थितियों से उत्पीड़ित है, उद्विग्न है, जिसकी मनोकामनायें पूर्ण नहीं हुई हैं, वह संघर्षों से ऊबकर जीवन से पलायन करना चाहता है। आत्मग्लानि, आवेग, हताशा, द्वेषभाव, पीड़ा, क्रोधादि मनोविकार जैसे विविध कारणों से कोई कायर व्यक्ति ही आत्महत्या करता है, किन्तु सल्लेखना की साधना बिना किसी आकांक्षा के निर्विकार मन से संयम साधना के भावों से वीरतापूर्वक स्वीकार की जाती है। सल्लेखना अंगीकार करने वाला कोई साधक असमय में मृत्यु आमंत्रित नहीं करता, किन्तु साधक को जब अपनी आयु का अंत निकट दिखता है अथवा प्रतिकार न किये जाने वाली कोई ठीक न होने वाली शारीरिक व्याधि जैसी प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो गई हो, तब वह भेदविज्ञान पूर्वक, क्रमशः चार प्रकार आहार के त्यागपूर्वक सल्लेखना की साधना करता है। इसमें भी उसे जीवन या मरण की आकांक्षा आदि पूर्वोक्त पाँच दोषों से रहित होना अनिवार्य है, तभी उसकी सल्लेखना सफल होती है। सागारधर्मामृत (8/8) में कहा है न चात्मघातो "स्तिव्रतक्षतौ वपुरुपेक्षितुः । कषायावेशतः प्राणान् विषाद्यौहिंसतः स हि ॥ - अर्थात् संयम साधना में ग्रहण किये हुए व्रतों के विनाश का कारण उपस्थित होने पर शरीर की उपेक्षा करने वाले के आत्मघात का प्रसंग नहीं होता, क्योंकि वह आत्मघात कषाय के आवेश से, विष आदिक से प्राणों को नष्ट करने वाले व्यक्ति के ही होता है। ******

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