Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 367
________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 79 आदि बहुमूल्य पदार्थों को, जितना संभव बने, वैसे बचाता है तथा घर को नष्ट होने देता है। उसी तरह व्रतशीलादि गुणरत्नों का संचय करने वाला व्रती-मुमुक्षु-गृहस्थ अथवा साधु भी उन व्रतादि गुणरत्नों के आधारभूत शरीर की प्राणप्रण से सदा रक्षा करता है, उसका विनाश उसे इष्ट नहीं होता। यदि कदाचित् शरीर में रोगादि विनाश का कारण उपस्थित हो जाए तो उनका वह पूरी शांति के साथ परिहार करता है। लेकिन जब शरीर में असाध्य रोग, अशक्य और आकस्मिक उपद्रव आदि की स्थिति देखता है और शरीर का बचना असंभव समझता है, तो आत्मगुणों की रक्षा हेतु क्रमशः आहारादि का त्याग प्रीतिपूर्वक समभाव से सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्याग करता है। क्योंकि साधक अपने जीवन में जब यह देखता है कि उसकी मन, वचन, और काय की शक्ति क्षीण हो रही है तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की अभिवृद्धि नहीं हो रही है, तब उसे मरण अभिप्रेत होता है। इसका फलितार्थ यह है कि मनुष्य जैसे जीने के लिए स्वतंत्र है, वैसे वह इस विधि से मरने के लिए भी स्वतंत्र है। वस्तुतः मुनि अपनी संयम-यात्रा का निर्वहन करते-करते जब यह अनुभव करने लगे कि शरीर और इंद्रियों की हानि हो रही है, योग क्षीण हो रहे हैं, पराक्रम घट रहा है और स्वाध्याय और संयम साधना आदि में बाधा आ रही है-तब वह शरीर-त्याग की तैयारी में लग जाए। वह सोचे मुझे जो करना था, मैं वह कर चुका हूँ। मुझ पर जो दायित्व था, उसका मैंने उचित निर्वाह किया है। अतः अब मुझे सल्लेखना ग्रहण करना चाहिए। रत्नकरण्डश्रावकाचार (123) में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं-जीवन में आचरित अनशनादिक विविध तपों का फल अंत समय गृहीत सल्लेखना है। अतः अपनी पूरी शक्ति के साथ समाधिपूर्वक मरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि शरीर धारण का उद्देश्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवृद्धि है। जब वह न हो सके तो इस शरीर को सल्लेखना के लिए समर्पित कर देना चाहिए। श्रमण की तरह श्रावक भी अपने मरण को सुधारने के लिए लालायित रहता है तथा शारीरिक कृशता की स्थिति में सल्लेखना के मार्ग को स्वीकार

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