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अनेकान्त 68/4 अक्टू-दिसम्बर, 2015
समाधिपूर्वक मरण प्राप्त करे ।
सल्लेखना - संथारा सम्बन्धी भ्रम निवारण
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जैन साधना पद्धति में साधु और श्रावक अपने संयममय जीवन के चरम बिंदु के सन्निकट पहुँचकर समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करने के लिए सल्लेखना ग्रहण करते हैं और अपने शरीर में बची-खुची शक्ति को सार तत्त्व से खींचकर मृत्यु को महोत्सव बनाने का सार्थक प्रयास करते हैं। जीवन के अवशिष्ट बहुमूल्य क्षणों को समग्ररूप से आध्यात्मिक प्रवृत्तियों में नियोजित करने का यह सर्वाधिक श्रेष्ठ उपक्रम है।
सल्लेखना या संथारा की गम्भीरता और महत्ता को न समझने वाले कुछ लोग समझते हैं कि इसमें अन्न जल का पूरी तरह त्यागकर बलात् मृत्यु को प्राप्त होते हैं। पर यह सही नहीं है। क्योंकि ऐसा करना तो आत्महत्या ही कहलायेगा किन्तु जैनधर्म इसकी कदापि आज्ञा नहीं देता, क्योंकि जबतक आयुष्य है तब तक शुद्ध और मर्यादित आहार ग्रहण करते हुये अपनी संयम साधना और धर्म ध्यान करते हुए आत्मिक विशुद्धि को प्राप्त कर जीवन के चतुर्विध आहारों में से क्रमश: एक-एक आहार को कम करते हुए अन्तिम क्षणों में बाह्य आहार आदि और आन्तरिक कषायों आदि का त्यागपूर्वक समाधिमरण को प्राप्त करना संथारा है।
पं. आशाधार ने सागारधार्मामृत (8/6) में ठीक ही कहा है स्वस्थ शरीर पथ्य, आहार और विहार द्वारा पोषण करने योग्य है तथा रुग्ण शरीर योग्य औषधियों द्वारा उपचार के योग्य है। परंतु योग्य आहार-विहार अथवा औषधोपचार करते हुए भी शरीर पर उनका अनुकूल असर न हो, तो ऐसी स्थिति में सल्लेखना पूर्वक शरीर को छोड़ना ही श्रेयस्कर है।
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सर्वार्थसिद्धि (7/22) में आचार्य पूज्यपाद ने सल्लेखना के महत्व और आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए लिखा " मरण किसी को इष्ट नहीं है। जैसे अनेक प्रकार के सोने, चाँदी, बहुमूल्य वस्त्रों आदि का व्यापार करने वाले किसी को भी अपने घर का विनाश कभी भी इष्ट नहीं हो सकता। यदि कदाचित् उसके विनाश का कोई (अग्नि, बाढ़ आदि) कारण उपस्थित हो जाए तो वह उसकी रक्षा करने का पूरा उपाय करता है और जब रक्षा का उपाय सफल होता हुआ नहीं देखता है तो घर में रखे हुए उन सोना-चाँदी