Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 365
________________ अनेकान्त 68/4 अक्टू - दिसम्बर, 2015 सल्लेखना का शाब्दिक अर्थ है " सम्यग्काय कषायः लेखना सल्लेखना । कायस्य बाह्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहायनक्रमेण सम्यक् लेखना सल्लेखना अर्थात् अच्छे प्रकार से काय (शरीर) और कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ ) का क्रमशः लेखन अर्थात् कृश क्षीण या कम करना सल्लेखना है। इस तरह बाह्य और भीतरी क्रोधादि कषायों का (उत्तरोत्तर काय और कषायों को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए) भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है । इसी को समाधिमरण और संथारा भी कहा गया है। यह सल्लेखना जीवन में अर्जित समस्त व्रतों, तपों और संयम की रक्षक तथा इन सभी की साधना है, इसीलिए इसे व्रतराज भी कहते हैं। 77 वस्तुतः सल्लेखना शब्द, सत्-लेखना इन दो शब्दों के संयोग से बना है। सम्यक् प्रकार के कषाय को क्षीण या कृश करने को सल्लेखना कहते हैं। इसके आभ्यंतर और बाह्य ये दो भेद हैं काय के कुश करने को बाह्य सल्लेखना और अन्तरंग क्रोधादि कषायों के कुश करने को आभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। -- कलशारोहण की तरह है सल्लेखना इस प्रकार सल्लेखना काय (शरीर) और कषाय के कृशीकरण- क्रमशः क्षीण करते रहने की अनुपम साधना है जैसे किसान अच्छी फसल की प्राप्ति हेतु बीज बोने से पूर्व खेत में हल द्वारा जुताई करके जमीन को पोली करता है, वैसे ही सल्लेखना भी कृशीकरण की प्रक्रिया है अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय, तप, त्याग और संयमादि गुणों के द्वारा हमने अपनी भावनाओं को जिस प्रकार भावित परिप्लावित किया है। आयु के अंत में अनशनादि विशेष तपों के द्वारा शरीर को और श्रुतरूपी अमृत के आधार पर क्रोधादि कषायों को कृश करने की प्रक्रिया को सल्लेखना कहा गया है। - जैन साधना पद्धति में सल्लेखना व्रत यद्यपि जीवन के अंत में धारण किया जाता है, किन्तु उसकी कामना, संकल्प और अभ्यास जन्म के समय से ही प्रारंभ हो जाता है। अपने नवजात शिशु को प्रथम जिनेन्द्रदर्शन हेतु श्रावक उत्सव के साथ जब मंदिर ले जाते हैं, तब वहाँ मुनिराज या गृहस्थाचार्य विद्वान् उसे आर्शीवाद देते हुए कहते हैं 'अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिरस्तु' अर्थात् अपमृत्यु से बचा रहे और जीवन के अन्तिम समय

Loading...

Page Navigation
1 ... 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384