Book Title: Anekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 342
________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 वनस्पति विज्ञान और आयुर्वेद - वैद्य फूलचन्द शास्त्री (आयुर्वेदाचार्य) जयपुर जब से संसार में मानव शरीर की उत्पत्ति हुई है- तब से उसके साथ ही रोग उत्पत्ति हुई। अतएव रोगी की उत्पत्ति का इतिहास भी मनुष्य के शरीर के साथ ही प्रारंभ होता है, और जब से रोगी की उत्पत्ति हुई तभी से मनुष्य उसको दर करने के उपायों की खोज करने लगा और तभी से उसके ये उपाय चिकित्सा शास्त्र के रूप में प्रकट होने लगे। अतएव यह कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कि चिकित्सा शास्त्र का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव जाति का इतिहास। ज्यों-ज्यों औषधि विज्ञान का विस्तार होता गया त्यों-त्यों वनस्पति विज्ञान की महत्ता अधिकाधिक लोगों के ध्यान में आने लगी और क्रमशः इस विज्ञान ने एक स्वतन्त्र शास्त्र का रूप धारण किया जिसका नाम आयुर्वेद हुआ। वनस्पति विज्ञान के अंतर्गत सुश्रुतसंहिता में 700 वनस्पतियों का उल्लेख मिलता है। जितनी भी सृष्टि आप देखेंगे सर्वत्र चर सृष्टि में सदैव प्रत्येक प्राणी एक न एक घातक के भय से अपना रक्षा विधान सोचा करता है, हमारी वनस्पतियाँ भी उससे बच न सकीं। जिधर देखेंगे उसका सर्वनाश हो रहा है, पशुओं, मनुष्यों तथा हर प्रकार के पक्षियों की ये खाद्य वस्तुयें हो रहीं हैं। पशु वनस्पति पर ही अपना निर्वाह कर रहे हैं, मांसाहारी पशु भी शाकाहारी पशुओं के ही मांस पर जीवित हैं और मनुष्य तो हर प्रकार से इनका उपयोग करते हैं। अत: वनस्पतियों को इससे बचने के लिए प्रकृति ने विशेष प्रकार की शक्ति प्रदान की है। जो भिन्न 2 रूप में होती है जैसे- कई प्रकार के कण्टक, विषाक्त रोग, कड़वापन, चरपरापन वा अन्य प्रकार के गन्धादि। वृहती आदि के पत्रों में कांटे, वर्चादि में गन्ध, शाखी वृक्षों में वल्कल, विशेष औषधियों में विष, वृश्चिकादि, रोम व

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