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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 विषयों के अन्वेषण मार्ग को आज का वैज्ञानिक अवहेलना की दृष्टि से देखता है और उसके अचिन्त्य महत्व में संदेह करता है जैसे- शक्ति का वीर्य अचिन्त्य क्रिया। इस अचिन्त्य क्रिया का ज्ञान यांत्रिक विज्ञान बतलाने में असमर्थ है। जैसे गुलवनप्सा के विषय में उसका प्रतिश्याय हरत्व प्राप्त नहीं होता ऐसा लेबोरेट्रियाँ प्रतिध्वनित करती हैं, किन्तु प्रतिदिन 'गुलवनप्सा' पीकर हजारों व्यक्ति प्रतिश्याय से मुक्त होते हैं। चन्द्रोदय के ऊपर पाचक रसों की प्रत्यक्ष क्रियायें प्रसिद्ध हैं, किन्तु वैद्य वर्ग दिन-रात चन्द्रोदय देकर मृतक में भी जान डालते हैं।
भारतवर्ष की बहुत सी औषधियां जिनको हम घास-फूस समझकर व्यर्थ ही फेंक देते हैं, वही जब विदेशों में जाकर टिचर-अर्क व एक्सट्रेक्स का रूप धारण करके सुन्दर लेविल से युक्त होकर आती हैं तो हम उनके लिये विपुल धनराशि खर्च करके खरीदते हैं जैसे- अजवाइन, अनन्तमूल, धतूरा, मीठातेलिा आदि।
प्राच्य-पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान का समन्वय- इतना ही नहीं हमारे देश में कई ऐसी औषधियां हैं जो विलायती औषधियों से गुणों में अच्छा और निरुपद्रव काम करती हैं। जैसे हृदय गति ठीक करने के लिए 'डिजिटेलिस' नाम की दवा काम करती है तो कुटकीक्वाथ से वही लाभ सफलता पूर्वक प्राप्त करते हैं। 'पोटाशब्रोमाइड्' नामक औषधि के मुकाबले हमारे देश की 'हरमल' नामक औषधि अच्छा कार्य करती है, 'केलम्बा' के मुकाबले गिलोय, गोवाकम, चम्पा, कालादाना, 'थायमल' के स्थान पर अजवाइन इस प्रकार अनेकों औषधियाँ हैं।
कई औषधियाँ ऐसी हैं जिनकी बराबरी एलोपैथिक औषधियां नहीं कर सकती हैं। जैसे कामला रोग पर 'पोडोफोलिन' या 'टेरेक्सी' की मात्रायें पीने से नहीं होता जबकि 'बन्दाल' के केवल सूंघने मात्र से कामला-पाण्डु रोग ठीक होता है। "ज्वरं हन्ति शिरोवद्ध सहदेवी जटा यथा' अर्थात्-शिर पर सहदेवी की जड़ बांधने मात्र से ज्वर ठीक होता है। 'एस्प्रीन' जिस शिर दर्द को ठीक नहीं कर सकती उसे ताजे 'अपामार्ग' के पत्रों का स्वरस कान में डालते ही शांत करते हैं। 'जंगलनी जड़ी बूटी' में कहा गया है कि शान्ति निकेतन के एक छात्र को बड़े जोर से नाक