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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
जैनागम में आयर्वेदिक साहित्य इस समय यद्यपि प्रचर रूप में उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु प्राचीन काल में अन्य साहित्य की भांति इस विषय पर भी जैनाचार्यों ने पर्याप्त लिखा है। श्री उग्रादित्याचार्य (लगभग 11वीं शताब्दी) कृत और श्रीमान् पं. वर्द्धमान पार्श्वनाथजी शास्त्री द्वारा संपादित 'कल्याणकारक' नामक ग्रंथ ही एक मात्र जैनायुर्वेद का प्रतीक है, किन्तु इसके अलावा भी विशाल साहित्य जैनायुर्वेद का रहा है यह निर्विवाद है। पूज्यपाद आचार्य के अनेक योग तो अपने मूल रूप में अजैनाचार्यों द्वारा निर्मित आयुर्वेदिक ग्रंथों में मिलते हैं। ऐसे योगों के अन्त में पूज्यपाद स्वामी का नाम अंकित रहता है। श्वेताम्बर जैनाचार्यों द्वारा निर्मित आयुर्वेदिक साहित्य का पर्याप्त उल्लेख भी मिलता है। जैनाचार का प्राण अहिंसा सिद्धान्त का इसमें पूर्णतया संरक्षण किया है।
आयुर्वेद का उद्देश्य व्याधिग्रस्त लोगों की व्याधि दूर करना और स्वस्थ पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा करना है तथाहि- "इह खल्वायुर्वेद प्रयोजनम् व्याध्युपस्टष्टाना व्याधि परिमोक्षः, स्वस्थस्य रक्षणं चं (सुश्रुत)" अर्थात् रोगग्रस्त को रोग से मुक्त करना और स्वस्थ जीव की रक्षा करना आयुर्वेद का उद्देश्य है। यहाँ पर व्याधि शब्द दूषित हुए वातादि दोष जन्य ज्वरादि शारीरिक रोगों, और संसार परम्परा के जनक रागद्वेष क्रोधादि मानसिक विकारों का बोधक है। इन दोनों प्रकार के रोगों को दूर करना न केवल भौतिक खान-पान और प्रवृत्ति निवृत्ति पर निर्भर है, अपितु वैचारिक शुभ शुद्ध समीचीन प्रवृत्ति की भी अपेक्षा रखता है। इस दिशा में जैनाचार का महत्व अनिवार्य है। आचार शब्द का व्यापक अर्थ इस क्षेत्र में आचार्यों ने स्वीकार किया है। “आ समन्तात् चरणमाचारः" अर्थात् व्यक्ति का जो अन्तरंग और बहिरंग समीचीन क्रिया कलाप होता है उसे आचार कहा है। व्रत, नियम, उपवास सामायिक, संध्यावंदन आदि सभी धार्मिक नियमों व क्रियाओं का समावेश इसमें हो जाता है। यह सबका सब आचार-विचार आयुर्वेद के सदवृत्त (सदाचार) में भी है। यही शुभ प्रवृत्ति उत्कर्ष करती हुई जब अभ्यासवश निवृत्ति का रूप धारण कर लेती है और इसके मूल नायक जीव की अपने गन्तव्य चरम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करा देती है तभी यह आचार अपने सही रूप में चरितार्थ होता है। आयुर्वेद भी इसी लक्ष्य (लौकिक एवं पारलौकिक