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अनेकान्त 68/4 अक्टू-दिसम्बर, 2015
दर्शन व संप्रदाय का है । दार्शनिक क्षेत्र के विवाद की तरह आयुर्वेदिक क्षेत्र में इतना मतवैषम्य आश्चर्यजनक और अस्वाभाविक नहीं। आयुर्वेद और जैनाचार की प्रवृत्ति व उद्देश्य समान है। इसमें दो मत नहीं हो सकते। जैनायुर्वेदिक ग्रन्थ ‘कल्याणकारक' में भी स्वास्थ्य का विश्लेषण इसी प्रकार किया है। तथाहि
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अथेह भव्यस्य नरस्य साम्प्रतं, द्विधैव तत्स्वास्थ्य मुदाहृत जिनैः । प्रधानमाद्यं परमार्थमित्यतो, द्वितीय मन्यद् व्यवहार सम्भवम् ॥
अर्थात् परमार्थ स्वास्थ्य ( आध्यात्मिक स्वास्थ्य ) और व्यवहार स्वास्थ्य (शारीरिक स्वास्थ्य) के भेद से स्वास्थ्य के दो प्रकार का जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इन दोनों प्रकार के स्वास्थ्यों की सिद्धि सम्यगाचार विचार व व्यवहार से ही हो सकती है।
उपलब्ध आयुर्वेद संहिताओं के स्वस्थ वृत्त या स्वास्थ्य के नियमों का परिशीलन या पठन करते समय इसमें व धर्म के अंगभूत आचारशास्त्र के नियमोपनियमों में भेद कर सकना मुश्किल है। जैन गृहस्थाचार, जिसका मूल सप्तव्यसन का त्याग और श्रावक के 12 व्रत (पंचाणुव्रत, चार शिक्षाव्रत और 3 गुणव्रत) हैं, इनका इसी नाम से उल्लेख यद्यपि स्वास्थ्य संरक्षरक या स्वास्थ्यप्रद आयुर्वेदिक आचार में नहीं है, किन्तु वे वही है, केवल नाम मात्र का अन्तर है, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता। जैनाचार में जिस प्रकार ऐहिलौकिक सुख सामग्री व अभ्युदय प्राप्त करने का, उनके भोग करने का सीमित विधान है और आध्यात्मिक आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) को मुनष्य जीवन का चरम लक्ष्य माना है बिल्कुल यही स्थिति आयुर्वेदाचार में भी है। उदाहरण के तौर पर सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'वाग्भट' का एक उद्धरण प्रस्तुत है ।
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वा प्रवृत्तयः । सुखं च न बिना धर्मात्तस्माद्धर्म वरीभवेत्॥ हिंसास्तेयान्यथा काम मैथुन्य परूषानृते । संभिन्नालाप व्यापादमभिध्यादृग्विपर्ययम्॥ पापं कर्मेतिदशधा कायवाड्. मानसैस्त्यजेत्। अवृत्ति व्याधिशोकार्तमनुवर्तेत शक्तितः ॥ आत्मवत्सतत पश्येदपि कीटपिपीलिकाम् ।