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अनेकान्त 68/4, अक्टू- दिसम्बर, 2015
जोणिपाहुड : एक अनुशीलन
-डॉ. उदयचन्द्र जैन
हिदाहिदं च आउस्से, विण्णाणे वाहि-संतणं । विज्जदे जत्थ जीवाणं, जीवणं देह - रक्खणं ॥
जिस विज्ञान में व्याधियों के हित-अहित के उपाय हो तथा जीवों के लिए जीवन और शरीर रक्षण के भाव हो वह आयुर्विज्ञान है । जीव और देह के संयोग का नाम जीवन है। जितने समय तक यह संयोग बना रहता है, उसी का नाम आयु है। आयुर्विज्ञान में हितकारी या अहितकारी जितने भी द्रव्य, गुण और कर्म हैं, उनके आरोग्य का लाभ मनुष्य के लिए लाभदायी होता है।
देह-इंदिय-सत्ताणं, हिदाहिद- णिरामयो।
वाहि-विहिद- लोगाणं, आयुविण्णाण संभवो ॥
शरीर-इन्द्रियों वाले सत्त्वों के हित-अहित एवं निरामय बनाने वाला आयुर्विज्ञान है। यह व्याधि व्यथित लोगों के लिए आयु (जीवन जीने) की कला सिखलाता है।
आरोग्यं दिग्ध - आउस्सं, सुह - संसाहणं जणा । लभंते आउ-संण्णाणं, जोग - मुद्दग - भावए ॥
वास्तव में दीर्घ आयु, आरोग्य, सुख-संसाधन आदि के कारणों को लोग योग मुद्रा (मन, वचन और काय ) की बोधता से प्राप्त करते हैं।
जोणि-शब्द- 'जोणि' का अर्थ योनि है, उत्पत्ति, उपाय, कारण हेतु आदि का नाम भी योनि हैं) 'जोणिपाहुड' में योनि को उत्पत्ति स्थान कहा है।
सुरयल-लद्ध - पसंसं, सुवण्ण-सहियं च रोगहरणं । भव्य-उवयारद्ध काया चक्की - कोसं पाहुडयं ॥
जिस ग्रन्थ में पूर्ण प्रशंसा हो, उत्तम वर्णों सहित रोगों का उपचार हो तथा जो भव्य जनों के उपकारार्थ एवं देह की कान्ति के लिए चारों ओर